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रचनाएँ - शास्त्री जी ने आधुनिक साधु, जिनोपदेश, बृहद् जिनोपदेश, कर्माष्टक प्रकृति, ग्रन्थ, मुख्तार स्मृतिग्रन्थ आदि अनेक ग्रन्थ रत्नों का प्रणयन किया। अनेक कर्म ग्रन्थों की टीकाएँ भी की हैं । आपके द्वारा रचित "पद्मप्रभ स्तवनम्" श्रेष्ठ काव्य कृति है । आपने तत्त्वार्थ सूत्र, संस्कृत लब्धिसार, क्षपणसार आदि ग्रन्थों का पद्यानुवाद भी किया है ।।
आपकी भाषा सरल, सरस प्रसाद और माधुर्यगुण प्रधान है । शास्त्री जी के कृतित्व का जैन काव्य साहित्य के विकास में विशेष योगदान है। "पं.जवाहर लाल शास्त्री की प्रमुख रचनाओं का अनुशीलन':. जिनोपदेश:
आकार - यह एक शतक काव्य है जिसमें सौ पद्य हैं ।
नामकरण - जिनस्यः उपदेशः = जिनोपदेशः । अर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्रदत्त उपदेश। इस रचना में जैन धर्म के विख्यात सिद्धान्तों की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है जिससे उक्त (जिनोपदेश) नाम सच्चे अर्थों में सार्थक है। इसमें समग्र जैन दर्शन का सार प्रतिबिम्बित हैं।
प्रयोजन - यह ग्रन्थ जीवों के हितार्थ और मानव मात्र की चिरन्तर शान्ति के लिए प्रणीत किया गया है । ऐसी धारणा कवि ने स्वयं व्यक्त की है । कवि के उद्देश्य का अपर पक्ष यह भी है कि वह आत्म शान्ति के लिए अध्यात्म और जैन दर्शन प्रेरणा लेकर मुक्त होना चाहता है।
अनुशीलन - जिनोपदेश में जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सात तत्त्वों के क्रमशः शास्त्रसम्मत लक्षण, गुण, भेद आदि का विस्तृत विश्लेषण किया है । अजीव तत्त्व पाँच द्रव्यों को ग्रहण करते हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । प्रत्येक द्रव्य के स्वरूप को भी चित्रित किया गया है । इनके भेदों की भी समीक्षा की है । मोक्ष और योग के निमित्त से होने वाली आत्मा की अवस्थाएँ गुण स्थान हैं
गुणस्थानानि जीवस्य भाषितानि चतर्दश ।
मोहयोग निमित्तानि मिथ्यात्वादीनि तानि च ।" इस प्रकार गुणस्थानों की संख्या चौदह हैं - उनके नाम इस प्रकार है - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, सम्यक्त्व, विरताविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषाय, सयोगी केवली और अयोगी केवली । इन सभी के स्वरूप का पृथक्-पृथक् विवेचन किया गया है । मार्गणा के निरूपण में कहते हैं कि सभी जीव समास (गुण स्थान) जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं उसे "मार्गणा" कहते हैं । चौदह मार्गणाएँ विख्यात हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक । जीव को एक मार्गणा त्यागकर पुनः उसी में आने के लिए कुछ समय का अन्तर लगता है, तब वह मार्गणा सान्तर कहलाती है । ऐसी सान्तरमार्गणाओं का उल्लेख हुआ है - अपर्याप्तमनुष्य,वैक्रेयिकमिश्रयोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, सूक्ष्म साम्पराय संयम, सासादन सम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व और उपशम सम्यक्त्व । ___मोक्ष के कारणभूतरत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र) की समीचीन व्याख्या की गई है -