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________________ 156 कवि ने पद्मप्रभु को सांसारिक दुःखों के निवारण में समर्थ, विधाता, पर पिता, सुखदायक, चतुर्गतिनाशक, कहकर वन्दना की है । वह उन्हें अनेकशः "नमोऽस्तु" कहता है । कवि पद्मप्रभु को अपने आराध्य के रूप में चित्रित करते हुए उनके चारित्रिक पक्ष की भक्तिपूर्ण अभिव्यञ्जना करता है । वह उन्हें संसारमुनीश्वर, बुद्ध, एक, अनेक, अनादि आदि शुद्ध, असहायक", सर्वज्ञ आत्मज्ञ, पृथ्वीपति, विनाथ, आप्त, प्रभु, रिपुनाशक इत्यादि परस्पर विरोधाभास युक्त विशेषणों से अभिहित करते हुए उनके व्यक्तित्व, प्रभाव, माहात्म्य आदि की समीक्षा करता है । तत्पश्चात् कवि इनकी स्तुति विशद, विशुद्ध, साधु, जिन, विमदन मुनीन्द्र, देवाधिदेव, परम, विरत, विमोह, विधुपति', प्राज्ञ”, ईश, शुचि, भक्तदेव आदि के रूपों में करके उनकी शरण पाने का आकंक्षी है-"सोऽत्रैव,सद्गति सुखं प्रददातु सर्वम्" । क्योंकि कवि इस तथ्य से अवगत है कि पापोदय, दुःखमय, कृशकाय, जीवन की आशा से विमुख व्यक्ति भी भगवान् की स्तुति के द्वारा नीरोग और सफल मनोरथ हो गये हैं । इस प्रकार कवि अपार श्रद्धा, भक्ति पूर्वक पद्मप्रभु की महिमा का वखान करता है और उनका सान्निध्य पाने के लिए प्रयत्नशील होकर मार्मिक प्रार्थना करता है त्वय्येव तारयतु दुःखितहीन भक्तान् । इस प्रकार उक्त स्तोत्र में कवि ने अपने आराध्य का मुक्तकण्ठ से यशोगान किया "विद्याभूषण पं. गोविन्द्रराय शास्त्री" परिचय - बुन्देलखण्ड की गरिमा के प्रतीक पं.गोविन्द्रदाय शास्त्री महरौनी जिला झांसी के निवासी थे । दि. जैन समाज में आप व्याकरण, न्याय काव्यादि के प्रसिद्ध विद्वान् और हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक थे । काशी के स्याद्वाद महाविद्यालय में अध्ययन और अध्यापन से आपकी विद्वता निखरी हुई थी, आपकी दोहरी देह, छोटा क़द, बड़ी-बड़ी आँखें, गेहुआ चेहरा भरा होने से मुख मुद्रा प्रभाव शालिनी थी । मिलनसार व्यवहार और मुख पर पाण्डित्य की तेजस्विता से टीकमगढ़ और धार महाराजाओं के दरबारों में शास्त्री जी आदरणीय रहे। राज्य में 12 वर्ष तक धर्म और नीति के व्याख्याता तथा सहायक इन्सपेक्टर के पद पर शिक्षा विभाग में प्रतिष्ठित रहे । सन् 1940 में नेत्र पीड़ा के कारण विश्राम वृत्ति (पेंशन) लेकर मृत्यु पर्यन्त जिनवाणी की सेवा में अहर्निश लगे रहे । दि. जैन समाज के विद्वानों अत्यन्त सम्माननीयशास्त्री जी अपनी ललित रचनाओं के लिए राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद, सी.राजगोपालाचारी, आचार्य विनोवा भावे, सन्त गणेश प्रसाद जी वर्णी और काका कालेलकर जैसे गुण मान्य विद्वानों से पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुके थे। रचनाएँ - आपकी रचनाओं में जैन धर्म की सनातनता, गृहिणीचर्या, बुन्देलखण्ड गौरव, वर्तमान विश्व की समस्याएँ और जैन धर्म, भक्तामर स्तोत्र का हिन्दी पद्मानुवाद, यशस्तिलक चम्पू की बारह भावनाओं का हिन्दी गद्य पद्यानुवाद, आचार सूत्र और कुरल-काव्य अत्यन्त प्रसिद्ध है । समाट् जीवन्धर नामक काव्य के कार्य में लगे हुए थे कि आकस्मिक दुर्घटना में शास्त्रीजी का निधन हो गया, अतः उक्त काव्य पूरा नहीं हो सका। शास्त्री जी के लेख समय-समय पर सरस्वती, वीणा, एजुकेशनल गजट, जैन-सिद्धान्त भास्कर, जैन मित्र और दिगम्बर जैन आदि पत्रों में प्रकाशित होते रहे । गांधी जी के नेतृत्व में सत्याग्रह और असहयोग आन्दोलनों के समय आपने महरौनी तहसील की कांग्रेस कमेटी
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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