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| 150 कवि ने रचना के अन्तिम पद्य में स्तुति का अपना उद्देश्य भी स्पष्ट कर दिया है। आचार्य श्री में कवि की प्रकर्ष भक्ति इस रचना का हेतु है । रचनाकार ने स्वयं लिखा है
शास्त्रिणा मूलचन्द्रेण मालथोननिवासिना ।
भक्त्या कृता स्तुतिर्दिव्या महावीरप्रवासिना ॥ . प्रस्तुत रचना में दार्शनिक सिद्धान्तों, सांसारिक-असारता, वैराग्य, गुरु-भक्ति और आचार्योचित गुणों का सुन्दर दिग्दर्शन कराया गया है । भाषा का लालित्य, काव्योचित पदावली के प्रयोग, उपमाओं का यथास्थान व्यवहार चित्ताकर्षक है । कवि की बौद्धिक विलक्षणता भी यहाँ द्रष्टव्य है ।
"पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य" परिचय - उच्चकोटि के विद्वान, समाज सेवक, साहित्यके अनन्योपासक पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य का जन्म सागर जिले के अन्तर्गत शाहपुर नामक स्थान में 11 अगस्त सन् 1915 को हुआ । आपके पिता का नाम ब्रह्मचारी श्री भगवानदास जी भाई जी अध्यात्मवेत्ता एवं माता जी का नाम श्रीमती भागवती बाई "इन्द्राणी" था । आपने 9 वर्ष की उम्र में प्रायमरी परीक्षा उत्तीर्ण कर 14 वर्ष की अवस्था में धर्म, व्याकरण, साहित्य, न्याय विशारद तथा शास्त्री कक्षाएँ उत्तीर्ण की । आप साहित्याचार्य, जैन दर्शन शास्त्री, जैसी विभूतियों से विभूषित हैं । आप स्काउटिंग के श्रेष्ठ शिक्षक है । आपने अनेक शिक्षण संस्थाओं में रहकर प्राध्यापक का कार्य किया ।
आपने 76 वर्ष की उम्र में "जैन पूजा-काव्य" विषय पर डॉ. भागेन्दु जी के निर्देशन में सन् 1991 में सागर विश्वविद्यालय की पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त की । देश की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में भाग लेने वाले पं. दयाचन्द्र जी ने जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु अथक परिश्रम किया - छात्रों युवकों में सेवा भाव और धार्मिक प्रवृत्ति जागृत की ।
रचनाएँ - आपने छात्रावस्था में ही "छात्र-हितैषी" पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया । आपके 30 निबन्ध एवं अनेक कविताएँ प्रकाशित हो चुके हैं । विश्व तत्त्व प्रकाशक स्याद्वाद, महाव्रत और अणुव्रत, गुरु पूर्णिमा और उसका महत्त्व, जैन धर्म में भगवत् उपासना, रक्षा बन्धन पर्व की महत्ता और बाल गङ्गाधर तिलक आदि निबन्ध भी आपने रचे हैं। अमर भारती भाग एक, दो, तीन नामक पुस्तकें आपकी अनूठी कृतियाँ हैं । आपने संस्कृत भाषा में निबद्ध स्फुट रचनाएँ करके अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है । सरस्वती वन्दनाष्टकम्
प्रस्तुत शीर्षक के अन्तर्गत श्री दयाचन्द्र साहित्याचार्य ने वीणापाणि सरस्वती का यशोगान संस्कृत पद्यों में किया है । लेखक ने ये पद्य सागर विश्वविद्यालय में आयोजित आधुनिक संस्कृत साहित्य परिसंवाद (सेमिनार) के अवसर पर पढ़े । उन्होंने विज्ञान मूर्ति, जगज्जननी, धात्री, परितापहारिणी, आत्मदर्शिनी, यशोधन प्रदायिनी, विघ्ननाशिनी आदि विशेषण प्रयुक्त किये हैं ' अन्तिम पङ्क्ति की रमणीयता स्वाभाविक रूप से बढ़ गई है -
"स्तुमः सदा सरस्वती जनाय बोधकारिणीम्" । संस्कृत भाषा (वाणी) का स्तवन भावानुकूल है । संस्कृत भाषा की सजीवता अभिव्यक्त | करके राष्ट्र भाषा हिन्दी को उसकी गुणवती पुत्री माना है -