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चारित्रिक पक्ष का निरूपण करते हुए कवि ने उन्हें धीर, वीर, गम्भीर, संयम, प्रज्ञाशक्ति एवं कामादि का विजेता माना है । कवि का मन्तव्य है कि राग-द्वेष से विमुख हुए इन महात्मा के पास विषय रूपी श्वान आ ही नहीं सकते - आचार्य श्री ने विश्व कल्याण और मानवता के हितार्थ गहन साधना की । जिससे प्रबोधमयी, अमृत प्रदायिनी, धर्म और अधर्म के रहस्य से युक्त दर्शनमयी दृष्टि से युक्त तात्त्विक, विवेकपूर्ण तथा संसार सागर से मुक्त करने वाली अपनी सरस वाणी से सभी को आनंदित किया । साक्षात् ज्ञान के सागर इनकी सुधा के समान वाणी को श्रवण करके ऐसा कौन है, जो आपके चरणों में नतमस्तक न हुआ हो ? इस स्तोत्र के प्रणेता शास्त्री ने आचार्य श्री की आराधना करते हुए उनके आदर्शों से प्रेरणा प्राप्त करने पर बल दिया है और विभिन्न गुणों से मडित आचार्य श्री के विराट्-व्यक्तित्व, पाणडित्य महिमा का मूल्यांकन करने में अपनी अल्पज्ञता स्वीकार की है ।
एवं कृत्ये वद कथमिह सूरिभावं बिभर्षि
सूरित्वे वा भवति भवतः कौमुदः किं प्रबुद्धः ।।" - श्री पं. मूलचन्द्र जी शास्त्री निर्ग्रन्थ साधुओं के परम भक्त थे । भक्ति स्वरूप उन्होंने आचार्य शिव सागर महाराज की दश श्लोकों में स्तुति का सृजन किया था । जो आचार्य शिवसागर महाराज स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशित हुई है ।
__ आचार्य श्री शिवसागर महाराज गुणों के भण्डार और मोक्ष-पथ के पथिक थे। उनकी वाणी में वैराग्य और गुणों में आकर्षण था । कवि की प्रस्तुत रचना में आचार्य श्री के इस व्यक्तित्व की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है -
सम्यग्दर्शन शुद्धबोधचरणं संधारयन्नादशत्, स्वस्थानोचितसद्गुणेश्च विविधैराकर्षयन् मानवान्। वैराग्यारदवकारकैर्हितवहैर्नित्यं वचोभिः श्रितः,
स श्रीमान् शिवसाग़रो मुनिपतिर्भूयाद् भवार्तेर्हरः ॥ ___ कवि ने आचार्य श्री को बाल्यकालीन धार्मिक स्नेह, सांसारिक निस्सारताबोध और मुक्ति रूपी स्त्री सङ्गम की उत्सुकता आदि गुणों से विभूषित बताकर उन्हें अपने गुरु वीरसागर महाराज के धार्मिक सदुपदेशों का नित्य पान करने वाला विद्वान् रूपी मान-सरोवर में राजहंस सदृश कहा है -
निस्सारां परिभाव्य संसृतिमिमां बाल्येऽपि धर्मस्पृहः मुक्तिस्त्रीनवसङ्गमोत्सुकमना अत्यादरादत्यजत् । । श्री वीराब्धिगुरोर्निपीय नितरां सद्धर्मसन्देशनां,
विद्वन्मानसराजहंससदृशो नोऽव्याच्छिवाब्धि गुरुः ॥ कवि ने महाराज श्री की वृत्ति का, सङ्घ में उनकी स्थिति का और उनकी मुद्रा तथा पाण्डित्य का विश्लेषण करते हुए उन्हें आचार्य पद से विभूषित, जिनेन्द्र के समान निर्ग्रन्थ वीतराग मुद्रा का धारी, आगमोक्त वृत्ति से मण्डित, तत्त्वज्ञ, धर्मज्ञ और विद्वानों में श्रेष्ठ विद्वान्, प्रबल मोह का बैरी और रत्नत्रय का आराधक कहकर उनके सम्बन्ध में अपने उद्गार व्यक्त किये हैं तथा उन्हें नमन किया है -
जिनेन्द्रमुद्राङ्कित ! चारुवृत्ते ! तत्त्वज्ञ ! धर्मज्ञ ! विदांवरेण्य! नमोऽस्तु ते मोहमहारि रत्नत्रयी समाराधक ! संघभर्ते ॥