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________________ 148 विद्वान् शास्त्री जी ने अपनी कल्पना से लक्ष्मी और सरस्वती के पारस्परिक विरोधात्मक स्वभाव को भी सत्सङ्गति से विरोध विहीनतामय बताया है। पठनीय है डॉ. कोठियाजी के अभिनन्दन प्रसङ्ग में निर्मित पङ्क्तियाँ - सर्वप्रियं त्वां प्रसमीक्ष्य लक्ष्मीः सरस्वती चापि मिथो विरोधम् । विस्मृत्य विद्वन् ! युगपत्समेत्य साध्वीं त्वदीयां प्रकृतिं व्यनक्ति । श्री शास्त्री जी ने दीर्घायुष्य के हेतुओं में धर्म समाज और राष्ट्र की सेवा तथा गुणों जनों के आनन्दित होने की गणना की है । उन्होंने इन्हीं विचारों को व्यक्त करते हुए डॉ. कोठिया जी के दीर्घायु होने की कामना की है । पङ्क्तियाँ निम्न प्रकार हैं सद्धर्मसेवा च समाजसेवा, राष्ट्रस्य सेवा गुणिषु प्रमोदः ।। त्वज्जीवनं दीर्घतरं च कुर्याद्, विद्वजनानामियमस्ति काम्या ॥ आदर्श सहधर्मिणी का स्वरूपाङ्कन भी शास्त्री जी का स्तुत्य है । डॉ. कोठिया जी की धर्मपत्नी के सम्बन्ध में व्यक्त विचार इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं - सरस्वती साधक भद्रमूर्ते ! कुटुम्बनी ते भवतात् त्वदीये । सद्धर्मकार्ये सहगामिनी स्याद्, यतोऽङ्गनायत्त गृहस्थवृत्तम् ।। इस प्रकार श्री मूलचन्द्र जी शास्त्री की रचनाओं में काव्यात्मक सौन्दर्य चित्ताकर्षक है । भाषा का प्रवाह है । पदों में लालित्य है । सन्धि और समासों के प्रयोगों से भाषा में दुरुहता उत्पन्न नहीं हुई है । शब्दों का उचित प्रयोग शास्त्री जी की रचनाओं की अपनी एक अनूठी विशेषता है। __ "श्री आचार्य ज्ञानसागर-संस्तुति''६८ आकार - यह रचना एक स्तोत्रकाव्य है । ग्यारह पद्यों की निबद्ध रचना है ।। नामकरण : इसमें आचार्य ज्ञानसागर महाराज के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व और विद्वत्ता का सातिशय विवेचन होने के कारण ही इस रचना का शीर्षक "श्री आचार्य ज्ञानसागरसंस्तुति" सर्वथा उपयुक्त हैं। प्रयोजन - पण्डित मूलचन्द्र शास्त्री जी आ. ज्ञानसागर जी को अपना आराध्य गुरु मानते हैं और उनमें एक निष्ठ श्रद्धा तथा भक्ति भावना होने के कारण ही यह स्तोत्र रचा है । कवि ने इसका पठन-पाठन करने से सभी प्राणियों के मंगल होने और चिरन्तन शांति स्थापित होने की आशा भी व्यक्त की हैं ।' विषय वस्तु - इस स्तोत्र में मुनि श्री ज्ञानसागर के बाल्यकाल, शिक्षा-दीक्षा का विवेचन करते हुए आचार्य श्री के विद्याध्ययन केन्द्र गङ्गातट पर अवस्थित स्याद्वाद संस्कृत विद्यालय का, संक्षिप्त परिचय दिया है । वहाँ प्रख्यात आचार्यों के व्याख्यानों से प्रभावित होकर और उचित-अनुचित का विचार करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी वैराग्य की ओर उद्यत हुए । तत्पश्चात् श्री शिवसागर सूरि के सान्निध्य में रहकर तथा उनका मार्ग दर्शन पाकर सांसारिक सुखों में विरक्ति धारण की ओर आत्म चिन्तन करते हुए यमनियमादि का सेवन किया । इसी समय आचार्य ज्ञानसागर जी की काव्य प्रतिभा प्रस्फुटित होती है । उन्होंने जयोदय, प्रभृति अनेक काव्यों का प्रणयन किया । तत्पश्चात् अपने अतुल वैदुष्य और सुदीर्घकालीन अनुभव को अपने सुयोग्य शिष्य विद्यासागर में स्थापित करने लगे, जिससे उनके सिद्धान्त, | नीति, पाण्डित्य, प्रतिभा आदि की परम्परा समाज में फलीभूत हो सके । आचार्य श्री के
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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