________________
1477
-
-
पश्चात् रची गयी थी। श्री डॉ. कस्तूरचन्द्र "सुमन" श्री महावीर जी से ज्ञात हुआ है कि शास्त्री जी ने जीवन्धर स्वामी का चरित्र भी लिखना आरम्भ कर दिया था। इस काव्य का वे प्रथम अध्याय ही पूर्ण कर सके थे कि उनका देहावसान हो गया । "स्फुट रचनाएँ"
श्री मूलचन्द्र शास्त्री की अन्य स्फुट रचनाएँ अभिनन्दनः ग्रन्थों में प्रकाशित हुई हैं। श्री गणेश प्रसाद वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित "गणेश स्तुति" रचना में श्री शास्त्री जी ने पूज्य वर्णी जी द्वारा गङ्गा तट पर संस्थापित जिसः स्याद्वादः विद्यालय के प्रान्त भाग का गंगा की उत्तुंग तर स्पर्श करती हैं, उस विद्यालय की स्थिति का सुन्दर चित्रण किया है । द्रष्टव्य हैं कवि की निम्न पंक्तियां -
गङ्गोंत्तुङ्गतरङ्ग सङ्गि-सलिल प्रान्तस्थितो विश्रुतः, श्री स्याद्वाद-पदाङ्घितो भुविजनैर्मान्याऽस्ति विद्यालयः ।
सोऽनेनैव महोदयेन महता यत्नेन संस्थापितः, . ब्रूतेडसो सततं विनास्य वचनं कीर्तिपरां साम्प्रतम् ॥
श्री शास्त्री जी ने पूज्य वर्णी जी की स्वाभाविक वृत्ति का अपनी रचना में दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि वे अपनी व्यथा को तृण के समान मान का पर पीड़ा दूर करने में निण्णात थे । यदि ऐसा व्यक्ति लोगों के द्वारा पूजा जावे तो इसमें क्या आश्चर्य है? कवि की पंक्तियों में यह प्रसङ्ग निम्न प्रकार द्रष्टव्य हैं -
व्यथां स्वकीयां च तृणाय मत्वा परस्य पीडाहरणे विदग्धः ।
जनो जनैः स्याद् यदि पूज्य एव, किमत्र चित्रं न सतामरोहि ॥ वर्णी जी के माता-पिता, ग्राम, घर, जन्मघड़ी, धर्म की माता और गुरु वर्णी जी का सानिध्य पाकर धन्य हो गये थे । शास्त्री जी ने अपने इस विचारों को एक श्लोक में निम्न प्रकार निबद्ध किया है -
धन्या सा जननी पिताऽपि सुकृति गेहं च तत्पावनं, धन्या सा घटिका रसाऽसि महती मान्या हसेरोऽपि सः । धन्याचापि बभूव मान्यमहिता बाई चिरोंजाभिधा,
धन्यः सोऽपि गुरुर्यदस्य हृदये विद्यानिधिं न्यक्षिपत् ॥ न्यायाचार्य डॉ. दरबारी लाल कोठिया अभिनन्दन ग्रन्थ में श्री शास्त्री जी द्वारा निर्मित सात श्लोक प्रकाशित हुए हैं । इस रचना में शास्त्री जी ने आदि के दो श्लोकों में डॉ. कोठिया की जीवन-झांकी तीसरे श्लोक में लक्ष्मी और सरस्वती के पारस्परिक विरोध का अभाव, चतुर्थ श्लोक में डॉ. कोठिया जी की धर्मपत्नी की प्रशंसा और अन्तिम तीन श्लोकों में डॉ. कोठिया जी के प्रति मङ्गल कामनाएँ प्रस्तुत की हैं।
. शास्त्री जी की इस रचना में उपमाएँ और कल्पनाएँ ध्यातव्य हैं । कवि की रचना शैली भी किसी भी मर्मज्ञ विद्वान को अपनी ओर आकृष्ट किये बिना रहती । उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं डॉ. कोठिया जी को समर्पित चार पंक्तियाँ
गोलापूर्व समाजनन्दनवने यश्चन्दनाभायते, वैदष्याप्ति सलब्धशिक्षकपदः सदगन्धमालायते । आज्ञापालक शिष्यशिष्यनिचयो गन्धान्ध वृन्दायते, सोऽयं श्री दरबारिलाल 7 भोः स्थेयाच्चिरं भूतले ॥