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________________ 140 उस समय की याद करके राजुल चिन्ताक्रान्त हो जाती है, जब वह प्राणनाथ के गले में वरमाला डालने को आई, किन्तु लोगों ने बताया कि माङ्गलिक आभूषणों को उतार कर नेमि वापिस हो गये हैं । राजुल की सखियाँ नेमि के समक्ष विभिन्न प्रकार से राजुल की विरह दशा का बखान करती हैं और उन्हें उसे अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं । वे नेमि को सद्गृहस्थ बनकर घर में रहने और बाद में राजीमति के साथ आकर तपस्या करने का सुझाव बताती हैं । "कचित्कालं निवस निलये सद्गृही भूय, पश्चात्, राजीमत्या सह. यदुपते । निविकर्जयन्तग । मन्यस्व त्वं सुवचनमिदं स्वाग्रहं मुञ्च नाथ, भोगं भुक्त्वा न भवति गृही मुक्तिपात्रं न चैतत् ॥ सखियाँ कहती हैं : सुन्दर देह, वैभव, प्रभाव आदि सब कुछ सर्वोत्तम है, फिर किसलिए आप कष्टदायक तपस्या कर रहे हैं । वर्षाकाल में सूखे ईधन के अभाव में आपका वस्त्रविहीन शरीर जल बिन्दुओं को कैसे सहेगा । मेघों की गड़गड़ाहट, बिजलियों की चमक आपको निर्जन प्रदेश में भयभीत करेगी, ओलों की बरसात आपसे सहन नहीं होगी । (वर्षाकाल) सावन में विरह गीतों को प्रमदाएँ झूलों पर झूलती हुई गायेंगी, उस समय आपका चित्त अस्थिर हो जायेगा । अत: आप अभी से ही राजमन्दिर में पहुँच कर सबको सुखी बनावे। आप अवधि ज्ञानशाली हैं, इसलिए पहले से ही इस घटना को जानते थे तो फिर बारात लेकर क्यों आये । किन्तु इस सब तर्कों का नेमिनाथ ने कोई उत्तर नहीं दिया । सखियाँ लौटकर नेमि के समाचार राजुल को सुनाती है तो वह आत्म कल्याण के मार्ग पर भ्रमण करने का निर्णय लेती हैं । उसके माता-पिता नेमि के प्रति उसके लगाव पर वक्तव्य देते है कि विवाह के पहले उसने तुझे छोड़ दिया है इसलिए उसे पति मानकर विरह में दुः खी होना उचित नहीं हैं । बेटी ! कुल, जाति, कर्तव्य, आदि का विचार न करने वाले नेमि के लिए तू व्यर्थ ही दुःखी होती है, इसलिए तुम्हें भी "जो आपको न चाहे ताके बाप को न चाहिये" इस नीति का अनुकरण करना चाहिये । किन्तु राजीमति नेमि के प्रति अपनी अपार श्रद्धा सूचित करती है - __ "श्रुत्वोक्ति साऽवनतवदनोवाचवाचं श्रृणुष्व, नेमिं मुक्त्वाऽमरपतिनिभं नैव वाञ्छामि कान्तम् । चिन्ता कार्या न मम भवता नेमिनाऽहं समूढा, जातो वासो मनसि च मया संवृतो भर्तृभावात् ॥2 इस प्रकार अन्ततोगत्वा वह माता-पिता से आज्ञा लेकर आर्यिका की दीक्षा लेकर गिरनार पर्वत पर पहुँच जाती है । और नेमिनाथ की स्तुति पूर्वक वन्दना करती है । वर्धमान चम्पू काव्य की गद्य और पद्य दोनों विद्याओं के प्रयोग से वर्धमान चम्पू रचना का सृजन हुआ है । यही कारण है रचनाकार श्री मूलचन्द्र जी शास्त्री न्यायतीर्थ ने इस चम्पू संज्ञा दी है । जैन साहित्य में यशस्तिलक चम्पू का नाम प्रसिद्ध है । श्री शास्त्री जी ने इसकी रचना करके चम्पू काव्य की समृद्धि में चार चाँद लगाये हैं । इस काव्य में चौबीसवें जैन तीर्थङ्कर महावीर के पाँचों कल्याण को काव्यात्मक भाषा में चित्रण किया गया है । सम्पूर्ण विषय वस्तु आठ स्तवकों में विभाजित हैं । प्रस्तुत काव्य
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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