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________________ 139 नग्नावस्था इस प्रकार वचनदूतम् पूर्वार्ध में मेघदूत के प्रायः समस्त श्लोकों के अन्तिम पदों की समस्या पूर्ति रूप में परिणति की गई है। वचनदूतम् के उत्तरार्द्ध में उत्तर मेघदूत के कतिपय श्लोकों के उपयोगी अन्त्यपादों की पूर्ति की गई है । वचनदूत उत्तरार्द्ध के 84 पद्यों में राजुल के हताश होकर गिरि से लौट आने का समाचार सुनकर उसके पिता-माता और सखियों की उनके पास प्रकट की गई अपनी अन्तर्द्वन्द्व से भरी हुई मार्मिक पीड़ा का चित्रण है । राजुल के परिजन नेमि को अनेक प्रकार से समझाते हैं - पर्वतीय क्षेत्र बड़ा कष्टप्रद है, में आपको देखकर भीलों की स्त्रियाँ देखकर लज्जित होंगी और निन्दा करेंगी तथा आपको विघ्न रूप मानकर प्रताड़ित करेंगी । राजमती के आत्मीयजन उसकी विरह वेदना नेमि के सामने प्रकट करते हैं अन्तः प्रकृति का सजीव रूप नेत्रगत होता है : " त्वच्यालीना विरह दिवसॉस्तेऽधुवा संस्मरन्ती, त्यक्ताभूषा कुसुमशयने निस्पृहाऽस्वस्थचित्ता । गत्वैकान्तं प्रलपति भृशं रोदिति बूत, इत्थम् - जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरुपाम् ॥ - राजमती के माता-पिता, नेमि को अपनी पुत्रि की विरह दशा से अवगत कराकर सूचित करते हैं कि वह आप में ही दत्तचित्त है। मेघवाले दिनों में स्थल कमलिनी के समान न सोती है, न जगती है । उसकी तो कोई अपूर्व ही स्थिति है साम्रेड ह्रीव स्थकमलिनी न प्रबुद्धां न सुप्ताम् ।” राजुल की सखियाँ नेमि के समक्ष विभिन्न प्राकृतिक दृष्टांत प्रस्तुत करती हैं । * " रात्री रम्या न भवति यथा नाथ । चन्द्रेण रिक्ता, कासार श्रीः कमल रहिता नैव वा संविभाति । लक्ष्मीर्व्यर्था भवति च यथा दानकृत्येन हीना, नारी मान्या भवति न तथा स्वामिना विप्रयुक्ता ॥ 8 - आपको पाने के लिये नियमव्रत में संलग्न मेरी प्रिय सखी कृश शरीर और निद्रा का परित्याग किये है । उसकी दयनीय स्थिति आपके कारण हुई है, अत: आपने उसे विवाह के बीच में छोड़कर निर्नदत कार्य किया है । सखियों के द्वारा राजुल की विरहावस्था की दयनीयदशा का सजीव चित्रण सुरम्य बन गया है । वियोग श्रृंगार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है । सखी कहती हैं "अस्याकान्तं नयनयुगलं चिन्तया स्पन्दशून्यं, रुद्धापांगं चिकुरनिकरै रञ्जनभ्रूविलासैः । हीनं मन्ये त्वदुपगमनात्तत्तदा स्वेष्टालाभात्, मीनक्षो भाच्चलकुवलयश्री तुलामेष्यतीति ॥” राजुल का नेमि को भेजा गया प्रेरणास्पद सन्देश भी अत्यन्त सौम्य वातावरण की अभिव्यक्ति ही है । अपनी किस्मत को कोसती हुई राजुल पति द्वारा परित्यक्त होने के कारण स्वयं को अभागिन कहती है 1 - - " माहक्कन्या भवति महिला दुःखिनी या स्वभ त्यक्ता तावत्परिणयविधे निर्निदानं पुरस्तात् । द्रष्टो द्रष्टा न खलु समया तेन चाहं न साक्षात्, आयातोऽपि क्षण इव गतः सधननो द्वार देशात् ॥
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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