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________________ 138 पर्वत है, जिसका मध्यभाग सघन छायावाले वृक्षों से मण्डित और रमणीय है। नेमि की नीली कान्ति से युक्त ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह पृथ्वी के मध्य में श्याम और शेषनाग में पाण्डु स्तन ही हो ।' 50 राजुल विभिन्न दृष्टान्त और अन्योक्तियों के सहारे प्रणय-निवेदन करती है, आपके माता-पिता, बन्धु, मित्र, परिवार वाले जो आपके बिना चितित और दयनीय है, आपके घर जाने पर प्रसन्न होंगे । विरहजन्य दुःख को प्रकट करती हुई राजुल कहती है कि आपके बिना राजमन्दिर भी शोभाविहीन श्मशान जैसा प्रतीत होता है । इस प्रकार वियोग श्रृङ्गार का भावात्मक अनुशीलन राजुल के मार्मिक आत्म निवेदन में उपस्थित हुआ है। बाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति का मणिकाञ्चन समन्वय प्रायः सर्वत्र परिलक्षित होता है । सर्वत्र भ्रमणशील वायु को सम्बोधित करती हुई राजुल अपने अन्तरङ्ग स्थित भावों को प्रकटित करती है । "भो वायो त्वं निखिल भुवन व्याप्तकीर्तरमुष्य, पाश्र्वं गत्वा सविनयमिमं मामकं श्रावयेनम् । संदेशं मा, दयित, नय ते गर्जिते नो विधास्ये, सोत्कम्पानि प्रियसहचरी संभ्रमालिङ्गितानि ॥" वायु के माध्यम से विनय पूर्वक प्रियतम के पास सन्देश विरहव्यथा का परिचायक है । अपने प्रियतम को राजसिंहासन पर आरूढ़ करने की कल्पना राजुल के हृदय की भावुकता का प्रमाण है - "नष्यामूल्यस्फटिकमणिभिर्निर्मितं स्वच्छताद्यम्, शुभं दीर्घं प्रचुरमहसा राजसिंहासनं त्वम् । अध्यासीनः सुरनरवरैपूजिताने । लभेथाः, शोभा शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खात पंकोपमेयाम् ॥" राजुल मनोवेदना के अपार प्रवाह को नेमि के समक्ष छोड़ती है - वह कहती है कि बिना कारण के आपने मुझे विष के समान छोड़ दिया किन्तु मैं आपको अपनाना चाहती हूँ और घर ले चलने के लिए तत्पर हूँ । इसलिए इस पहाड़ को छोड़कर राजधानी में पधारिये, मैं आपके आगे-आगे चलकर मार्ग के तृण कण्टकों को साफ कर दूँगी मुञ्चेमं त्वं गिरिवरतटं राजधानी प्रयाहि, . अग्रे गत्वा व्यपगततृणान् तृणान मर्दयन्ती व्रजामि ॥" "वचन दूत" में राजीमती को केवल असहाय या अबला नारी के रूप में चित्रित नहीं किया गया है, अपितु वह एक वीर क्षत्रियाणी है इसलिए प्रसन्नतापूर्वक प्रियतम के मंगलपथ को प्रशस्त करना चाहती है और सहज ही अनुनय विनय के पश्चात् अपनी स्वीकृति प्रदान करती हुई कहती है "मुक्तिचेतः प्रियसहचरी नाथ ! नास्मीह रुष्टा, आगच्छे त्त्वां वरितुमिह सा तामहं स्तौमि नौमि । स्वस्मिन् रत्नत्रयमनुपमं पूर्णमाधेहि तत्र, सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी ॥ यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से नारी प्रियतम को सर्वथा उदासीन हो जाने की अपेक्षा मुक्ति रमा का वरण के लिए जो अनुज्ञा देती है, वह भावान्तर को ही अभिव्यञ्जित करती है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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