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वचनदूतम् :
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पं. मूलचन्द्र शास्त्री द्वारा रचित वचनदूतम् काव्य दो भागों में विभक्त है । वचनदूतम् के पूर्वार्द्ध में आगत 67 श्लोकों (पद्यों) में ध्यानस्थ नेमि के निकट राजुल की मनोवेदना का अङ्कन है । जबकि उत्तरार्द्ध के 84 पद्यों में राजुल के हताश होकर गिरि से लौट आने का समाचार सुनकर उसके माता-पिता और सखियों की उनके पास प्रकट की गई परिस्थिति - जन्य संवेदना का मार्मिक चित्रण है। इस ग्रन्थ की कथावस्तु "नेमिदूत" काव्य पर आधारित कथासार इस प्रकार है कृष्ण के चचेरे भ्राता नेमिकुमार का विवाह श्रावण मास में हो रहा था । सम्पूर्ण तैयारी के साथ नेमि - कुँअर की बारात द्वारिका से प्रस्थित होकर जूनागढ़ आ गई थी । जूनागढ़ के महाराजा उग्रसेन ने स्वर्ग से बढ़कर मनोहर साजसज्जा से नगर का सौन्दर्य बढ़ाया । जब बारात द्वारचार के लिए राजमहल के मुख्य द्वार पर पहुँची तभी राजकुँवर नेमिकुमार की दृष्टि एक बाड़े में घिरे हुए सुन्दर हिरणों पर पड़ी । इनको घेरे जाने का कारण सारथी से जानकर नेमिकुमार का चित्त व्याकुल हो गया और रथा राजद्वार सेवन की ओर मोड़ दिया गया । नेमि गिरनार पर्वत पर जाकर स्वयं वैरागी हो गये और केवलज्ञान प्राप्तिपर्यन्त वे सर्वथा मौन रहे ।
राजुल ने जब यह देखा तो वैवाहिक माङ्गलिक चिह्नों को उतारकर उनके पीछेपीछे उसी पर्वत पर पहुँची । विवाह मङ्गल बेला पर निराशा का अनन्त पारावार राजुल के हृदय में तरङ्गित होने लगा था, वह अपने हृदय की दयनीय स्थिति प्रकट करती हुई मि के निकट आन्तरिक वेदना प्रकट करती है
" याचेऽहं त्वां कुरु मयि कृपां मास्मभूनिर्दयस्त्वम्, नास्तीदं ते गुणगण साधुयोग्यं शरीरम् । सौख्यैः सेव्यं विरम तपसो नाथ सेव्या पुरी में बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिका धौतह
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नारी हृदय की वियोग जन्यवेदना इन शब्दों में साकार हो उठी है- वह कहती है - हे नाथ, ओली पसार कर में आपसे एक यही भिक्षा माङ्गती हूँ, कि आप मुझ पर दया करें, निर्दय न बनें । हे गुणगण मणे । आपका यह शरीर साधु अवस्था के योग्य नहीं है किन्तु सुखों द्वारा ही सेवनीय है । इसलिए, आप तपस्या से मुँह मोड़कर मेरी नगरी में पधारें वहां के राजमहल के बाहिरी उद्यान में स्थित शिवजी के मस्तक के चन्द्र की कांति से सदा धवल बनें रहते हैं ।
प्राकृतिक वातावरण में भी नेमिकुमार के इस निर्णय से उदासीनता आ गई है, पक्षी भी अपनी पत्नियों के साथ इस दृश्य को देखकर दुःखी हो रहे हैं - "अस्मिन्नद्रावपगतघृणं पक्षराजी विधूय, उड्डीयन्ते, कतिचिरबलां त्यागिनं त्वां निरीक्ष्य । एतान् पश्य त्वमिह वद किं साङ्गना सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं
म्लानचित्ताः,
बलाकाः ।
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राजुल अनेकों प्रकार से उन्हें घर लौट चलने को प्रेरित करती हैं- अपने को नेमि
के बिना असहाय, अशरण, तिरस्कृत, महसूस करती है। इस प्रकृति का बाह्य चित्रण सजीव हो गया है। सजल मेघों जैसे
काव्य में विभिन्न स्थलों पर सरोवरों से सुहावना गिरिनार