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________________ 136 माणवका, विद्युन्माला, चम्पकमाला, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, स्वागता, रथोद्धता, शालिनी, दोधक, भुजङ्ग-प्रयात, तोटक, द्रुतविलम्बित, भूपेन्द्रवंशा, वंशस्थ, वसन्त-तिलका, मालिनी, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता, हरिणी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा और शिखरिणी । गुरुगोपालदास बरैया अनेकान्त रूपी तीक्ष्ण शस्त्र समूह से मिथ्यामत का खण्डन करते हुए मिथ्यावादी रुपी मदोन्मत्त हाथियों के लिए शार्दूल स्वरूप थे । विद्या के सागर थे । आर्य समाजी वादियों को इन्होंने शास्त्रार्थ करके निरुत्तर किया था । वे कुशल वादी थे । आपके इन गुणों का प्रस्तुत रचना में निम्न प्रकार उल्लेख हुआ है - योऽनेकान्तनिशातशस्त्रनिकरैर्मिथ्यामतं खण्डयन् मिथ्यारादिमतङ्गजेषु कुरुते शार्दूलविक्रीडितम् । विद्यावारिधिरार्यवादिविनतिं शास्त्रार्थ सङ्घटते, यस्तूष्णीमकरोत्स वादकुशलो जीयाद्वरैया गुरुः ॥ प्रस्तुत रचना में श्लेष अलङ्ककार के भी प्रयोग हुए है । शशिवदना छन्द में शशिवदना का अर्थ चन्द्र मुख भी निरूपित है - शशिवदना गीः प्रणिमति नित्यम् ।। . यमिह गुरुं तं मनसि दधामि ।।7। पं. मूलचन्द्र शास्त्री का परिचयः परिचय - पण्डित मूलचन्द्र जी शास्त्री अपनी सारस्वत साधना के लिए विख्यात हैं। कर्कश तर्क और सुकुमार साहित्य, वज्र और कुसुम दोनों ही उनकी लेखनी से प्रसूत हैं। शास्त्री जी द्वारा विरचित काव्य उनकी आध्यात्मिक भावभूमि से प्रोद्भूत होकर चिरन्तन काव्य परम्परा पर कालजयी बनने के लिए प्रतिष्ठित है । पण्डित मूलचन्द्र जी शास्त्री का जन्म विक्रम संवत् 1960 अगहन बदी अष्टमी को मध्यप्रदेश के सागर जिले में स्थित मालथोंन नामक कस्बे में हुआ है । आपकी माता का नाम सल्लो और पिता का नाम श्री सटोरे लाल था । शास्त्री जी का अध्ययन बनारस में स्थित, श्री पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा संस्थापित स्याद्वाद महाविद्यालय में हुआ है। वहाँ पर श्रीमान् पं. अम्बादास जी शास्त्री के सान्निध्य में आपने विद्यार्जन किया । रचनाएँ - शास्त्री जी ने मौलिक रचनाओं के साथ ही 50 से अधिक ग्रन्थों का अनुवाद भी किया है । अष्टसहस्री के भाव को लेकर आप्तमीमांसा का एवं युक्त्यनुशासन ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद किया है । उन्होंने "न्यायरत्न" नामक सूत्र ग्रन्थ की रचना की और संस्कृत में उस पर तीन टीकाएं भी रची है । आपने स्वान्तः सुखाय और भी दूसरे काव्य लिखे हैं एवं "लोकाशाह" नामक 14 सर्गों में सम्गुफित महाकाव्यं भी रचा है । शास्त्री जी ने 70 वर्ष की अवस्था में "वचनदूतम्" नामक खंडकाव्य का प्रणयन किया है। जो पूर्वार्ध और उत्तरार्द्ध नामक दो हिस्सों में प्रकाशित हुआ है । शास्त्री जी की नवीनतम कृति "वर्धमान चम्पू" चम्पू काव्य परम्परा पर आधारित है । "अभिनव स्तोत्र" में एकीभाव स्तोत्र विषापहार स्तोत्र,कल्याणमन्दिर, स्तोत्र और भक्तामर स्तोत्र का संकलन है । शास्त्री जी ने उक्त स्तोत्रों में पादपूर्ति करके नवीन रचना विधा पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई है। शास्त्री जी ने अनेक स्फुट रचना संस्कृत भाषा में निबद्ध की है । संस्कृत भाषा के महाकवि, भाषाशास्त्र के विशेषज्ञ जैन दर्शन के कर्मज्ञ विद्वान पं. मूलचन्द्र जी 83 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त कर 5.8.1986 को संध्या समय 5.45 पर इस संसार से अलविदा हो गये ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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