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न्यायाचार्य । गुणाम्बुधे शुभविधे स्याद्वादवारां निधे । कः शेषो रसनासहस्रसुयुतः श्रीमद्ययोवर्णनम् । दृष्टा केवलमत्र मञ्जुलविभं त्वत्पादपद्यद्वयं,
पूजामो वयमद्य भक्ति निभृता, भ्रश्यगिरौ भावुकाः ॥12॥ प्रस्तुत रचना में रचनाकार ने पूज्य वर्णी जी को अपना गुरु माना है, उन्हें करुणाकर और पाप-ताप को दूर करने वाला निरूपित किया है । वर्णी जी के चिरकाल तक जीवित रहने की रचनाकार की कामना भी इस रचना में गर्भित है -
पापातापहरा महागुणधराः कारुण्यपूराकरा,
जीयासुर्जगतीतले गुरुवराः श्रीमद्गणेशाश्चिरम् ॥11॥ ___डॉ. साहित्याचार्य का जीवन साधु-सङ्गति पूर्वक रहा है । यही कारण है कि वे साधुओं आज भी श्रद्धालु हैं । उन्होंने ने केवल पूज्य वर्णी जी के प्रति अपितु आचार्य धर्मसागर महाराज के प्रति भी सरल संस्कृति आठ पद्यों में अपने श्रद्धा भाव व्यक्त किये हैं ।
. रचनाकार ने सर्वप्रथम आचार्य श्री के स्वभाव का चित्राङ्कन किया है । उनकी सरल निर्ग्रन्थ मुद्रा, उनका प्रमोद भाव और अमृतोपम वाणी से युक्त सदुपदेश का उल्लेख करते हुए रचनाकार ने धर्म सिन्धु की उपमा देकर उन्हें नित्य नमन किया है -
निर्ग्रन्थमुद्रा सरला यदीया प्रमोदभावं परमं दधाना ।
सुधाभिषिक्तेव धिनोति भव्यान् तं धर्म सिन्धुं प्रणमामि नित्यम् ॥ प्रस्तुत रचना में साधु के पञ्च महाव्रत, पञ्च समिति और तीन गुप्ति रूप चारित्र भी मुखरित हुआ है -
हिंसानृतस्तेय परिग्रहाधः कामाग्नितापाच्च निवृत्य नित्यम् । महाव्रतानि प्रमुदा सुधत्ते तं धर्मसिन्धुं प्रणमामि नित्यम् ॥3॥ ईयाप्रधानाः समितीर्दधानः गुप्तित्रयीं यः सततं दधाति ।
स्वध्यानतोषामृततृप्तचित्तस्तं धर्मसिन्धुं प्रणमामि नित्यम् ॥4॥ रचनाकार ने अन्त में आचार्य श्री की गुर्वावली का भी उल्लेख किया है । आचार्य श्री के गुरु शिवसागर महाराज और शिवसागर महाराज के गुरु वीरसागर महाराज तथा दादागुरु आचार्य शन्तिसागर महाराज बताये गये हैं । इस संबन्ध में कवि की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
शान्त्यब्धि-वीराब्धि-शिवाब्धिदिष्टं, श्रेयः पथं दर्शयते जनान्यः ।।
अवाग्विसर्ग वपुषैव नित्यं, तं धर्मसिन्धुं प्रणमामि नित्यम् ॥8॥
इस प्रकार सरस पदावली से संक्षेप में पूज्य वर्णी जी और आचार्य धर्मसागर महाराज का परिचय कराते हुए जैन सिद्धातों का रसास्वादन कराने में डॉ. साहित्याचार्य जी पूर्ण सफल हुए प्रतीत होते हैं। वृत्तहार५ :
प्रस्तुत रचना में साहित्याचार्य जी ने 30 विविध छन्दों में रचे गये संस्कृत पद्यों में गुरु गोपालदास जी वरैया की संस्तुति की है । रचना का शीर्षक "वृत्तहार" प्रयुक्त हुए छन्दों की बहुलता से सार्थक प्रतीत होता है । कवि की इस रचना में जिन छन्दों का व्यवहार हुआ है,वे हैं - अनुष्टुप्, आर्या, गीति, उपगीति, आर्या गीति, अक्षरपङ्क्ति, मदलेखा, शशिवदना,