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- 141 में कवि की यह अनूठी विशेषता है कि उन्होंने बुराई में भी अच्छाई को देखा है । अन्य कवियों के समान उन्होंने दुर्जनों की निन्दा नहीं की। उन्होंने उन्हें कवियों की प्रसिद्धि का हेतु माना है । काँच और मणि का दृष्टान्त देकर उन्होंने लिखा है कि जैसे काँच के सद्भाव में ही मणि की प्रतिष्ठा होती है, ऐसे ही दुर्जनों का सद्भाव कवि की प्रसिद्धि के लिए अपेक्षित है - ___कवि प्रकाशे खलु एव हेतुर्यतश्च तस्मिन् सति तत्प्रकर्षः ।
काचं विना नैव कदापि कुत्र मणेः प्रतिष्ठा भवतीति सम्यक् ॥1.21
कवि ने ग्रीष्म में सूर्य की प्रखरता और उसमें प्राणियों की बैचेनी, पृथिवी की शुष्कता, तालाबों की नीरसता और प्राणप्रद वायु के प्राणहारी प्रतीत होने का उल्लेख करते हुए ग्रीष्म ऋतु का सजीव चित्र उपस्थित किया है -
तीवस्तापस्तपति तपने ग्रीष्मकाले यदेह , जायेतास्मात् सुखविरहिता प्राणिनां क्लेशहेतुः । क्षोणी शुष्का भवति सरसा मृत्तिका नीरसा च,
वाति प्राणप्रद इह तदा प्राणहारी समीरः ।। 1-1 ।। कवि ने जीव-दया को धर्म और उनकी हिंसा को अधर्म संज्ञा दी हैं । उनकी दृष्टि में हिंसा से धर्म की प्राप्ति वैसी ही असम्भव है, जैसे बालू के पेलने से तेल
यत्रास्ति हिंसा न समस्ति तत्र, धर्मो यतः प्राणिदयान्वितः सः । न बालुका पेषणतः समाप्ति, स्तैलस्य कुत्रापि कदापि दृष्टा ॥1-14॥
कवि की नगर-वर्णन शैली द्रष्टव्य है । वैशाली नगर का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है कि वहाँ कोई ऐसा घर नहीं था जिसमें वृद्ध न हो, और कोई ऐसा वृद्ध न था, जो उदार न हो । उदारता भी ऐसी न थी जिसमें विशालता न हो और विशालता भी ऐसी न थी जो जीव-अनुकम्पा से सनी न हो । पङिक्तयाँ हैं -
न तद्गृहं यत्र न सन्ति वृद्धाः वृद्धा न ते ये च न सन्त्युदाराः । उदारता सापि विशालताद्या, विशालता सापि दयानुबन्धा 1-36॥
आगे कवि ने नगर की उत्कृष्टता का वर्णन करते हुए कहा है कि वैशाली नगर में | द्वेष था तो कुत्तों में ही था- विरोध था तो, सिंह और हाथी में ही था, और पारस्परिक विवाद प्रवाद काल में वादी और प्रतिवादियों में ही था । ये सब बातें प्रजा में न थी। कवि ने स्वयं लिखा है -
द्वेषः परं मण्डलमण्डलेषु, करेणुकंडीरवयो निरोधः । मिथो विवादः प्रतिवादिवादि, प्रवादकाले, न जनेषु तत्र ॥1-54॥
त्रिशला माता के सौन्दर्य का उल्लेख करते हुए कवि ने लिखा है कि कालिमा उनके बालों में ही थी, गुणों में नहीं । मन्दता उनकी गति में थी, बुद्धि में नहीं । निम्नता नाभिगर्त में ही थी, उनके चरित्र में नहीं और कुटिलता केश-पंक्ति में ही थी, उनकी वृत्ति में न थी क्योंकि सद्भावों के द्वारा उनका निर्माण हुआ था । कवि ने अपने इन भावों को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है -
कृष्णाः कचा नान्यगुणाश्च मन्दा, गति न बुद्धि ननु नाभिगर्तो । नीचो, न वृत्तं कुटिलालकालिः वृत्तिर्न सद्भाव विनिर्मितायाः ॥1-65॥