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________________ - 129 गुरू वन्दना और विधि का विवेचन कर विविध छन्दों में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति पद्य क्र. 33 से 58 तक वर्णित है । इसके पश्चात् जिन स्तुति की महिमा का वर्णन है । ज्ञातादृष्टा स्वभाव वाला आत्मा मोह के वश में होकर प्रमादी हो जाता है तब प्रमाद को दूर करने का जो सुप्रयास किया जाता है वह प्रतिक्रमण आवश्यक है । साधुओं की सरलता के लिए एक पाठ दिया जाता है सो वचनों के पाठ मात्र से आत्मा शुद्ध नहीं होती का विवेचन पद्य क्र. 73 से 88 तक किया हैं । निर्ग्रन्थ तपस्वी का जो त्यागरूप परिणाम होता है वह प्रत्याख्यानावश्यक कहलाता है । प्रत्याख्यान आवश्यक का विस्तृत वर्णन पद्य क्र. 89 से 100 तक किया है । कर्मक्षय का कारण मोक्षमार्ग का उपदेशक है । घातिया कर्मो का नाशकारक है, कृतिकर्मी से सारभूत है, वह कायोत्सर्ग आवश्यक कहलाता है । कायोत्सर्ग का जघन्य और उत्कृष्ट काल का परिणाम और भेद बताकर इस प्रकाश का समारोप किया है । पञ्चाचाराधिकार नामक प्रकाश के प्रारम्भ में भी आचार्य परमेष्ठियों को नमस्कार किया है । दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारों का स्वरूप बताते हुए ग्रन्थकर्ता ने लिखा है कि इन पांच आचारों का पालन आचार्य स्वयं करते हैं एवं दूसरों को भी पालन कराते हैं । मोक्षमार्ग में सहायभूत देवशास्त्र गुरू का तीन मूढताओं और ज्ञानादि आठमदों से रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । इसी क्रम में सम्यग्दर्शन के आठ अङ्गों का स्वरूप वर्णित है । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के तुरन्त बाद (पद्य क्र. 25 से 56 तक) सम्यग्ज्ञान के आठ अङ्गों का वर्णन है । तथा इसके अवान्तर भेदों का विवेचन है । इसके पश्चात् चारित्राचार का वर्णन है । तपाचार के अन्तर्गत बाह्यतप और आभ्यन्तर तप का वर्णन (पद्य क्र. 61 से 113 तक) वर्णित है । वीर्याचार का वर्णन करते हुए ग्रन्थकर्ता ने लिखा है - आत्मा की शक्ति वीर्य कहलाती है । आतापनादि से दीक्षित मुनि अपनी शक्ति को बढ़ाते हैं । इस प्रकार जो साधु विधि पूर्वक पञ्चाचार रूप तप को धारण कर तपस्या करते हैं, वे कर्मबन्ध से छुटकारा पाकर मोक्ष जाते हैं का वर्णन कर इस अध्याय का समारोप किया है। इस अनुप्रेक्षाधिकार नामक प्रकाश के प्रारम्भ में रागद्वेष से रहित मुनियों को प्रणाम किया है । वैराग्य वृद्धि के लिये वन में स्थित मुनिराज अनित्यत्वादि भावनाओं का चिन्तवन करते हैं । अनित्य भावना का विवेचन पद्य क्र. 2 से 11 तक वर्णित है । पद्य क्रमांक 12 से 21 तक अशरण भावना का विवेचन है । संसार भावना का वर्णन करते हुए ग्रन्थकर्ता लिखते हैं कि - दुःख रूपी जल से परिपूर्ण, जन्म मृत्युरूपी मगर मच्छों से व्याप्त भयंकर संसार सागर में दुःख का भार ढोते हुए चिरकाल तक दुःखित होते हैं । तदुपरान्त (पद्य क्र. 33 से 42 तक) एकत्व भावना का वर्णन है । अन्यत्व भावना का वर्णन पद्य क्र. 43 से 52 तक मिलता है । माता-पिता के रजवीर्य से उत्पन्न होने वाला पुत्र का शरीर पवित्र नहीं होता। मलमूत्रय शरीर सुन्दर चर्म से ढका है इस प्रकार की भावना करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है । पद्य क्र. 63-72 में आस्रव भावना का स्वरूप बताया है । आस्रव को रोकाना संवर कहलाता है। तीन गुप्तियों, दशधर्मों, पाँच समितियों, पाँच प्रकार के चारित्रों, बारहानुपप्रेक्षाओं और बाईसं परिषहजयों से सम्यग्दृष्टि जीवों के आस्रव रुकते हैं अर्थात् सवर भावना पल्लवित होती है। निर्जरानुप्रेक्षा का वर्णन पद्य क्र. 84 - 93, लोकभावनाओं का चिन्तन पद्य क्र. 94 - 103, बोधि दुर्लभ भावना का चिन्तवन पद्य क्र. 104 - 113 । धर्म भावना का स्वरूप 114 - 23 का वर्णित है । जो भव्यपुरूष स्थिर चित्त से द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते हैं ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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