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________________ 130 ध्यान सामग्री नाम के इस अध्याय के प्रारम्भ में मोक्ष पाने वाले सिद्ध-परमेष्ठियों का नमस्कार किया है । चित्त की स्थिरता के लिए ध्यान महत्त्वपूर्ण है । ध्यान तत्व की सिद्धि के लिये मार्गणाओं और गुणस्थानों का ज्ञान और व्यवहार में लाना आवश्यक है। इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारक, मार्गणाओं का वर्णन पद्य क्र. 2 से 38 तक है । मार्गणाओं में सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन है । संयममार्गणा की अपेक्षा सामायिक और छदोस्थापना संयम से सहित आत्मपुरूषार्थी जीवों के तीन भेद हैं । इस प्रकार इन सबका चिन्तन करने वाले पुरूष चिंतन के काल में अपने मन को अत्यधिक दुःख देने वाले पन्चेन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट को क्षय कर प्रसन्न होते हैं। आत्मा शरीर के प्रपन्च से भिन्न शुद्ध चैतन्य है ऐसा ध्यान करने वाले निर्ग्रन्थ साधुओं को इस प्रकाश के प्रारम्भ में नमस्कार किया है । आर्यिकाओं की विधि का वर्णन करते हुए ग्रन्थकर्ता लिखिते हैं - यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होते, फिर भी भावशुद्धि से स्त्रियाँ उत्कृष्ट औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेती है । सीता, सुलोचनादि ऐसी ही स्त्रियाँ हुई है, जो भव्यस्त्रियाँ गृहभार से विरक्त हो गयी है वे गुरु के पास जाकर भक्तिपूर्ण निवेदन करती हुयी कहती हैं - हे भगवन् ! हमें आर्यिका की दीक्षा दीजिये । गुरुवाणी सुनने की इच्छा से उनके सामने चुपचाप बैठ जाती है । स्त्रियों की मुखाकृति देख तथा भव्य भावना की परीक्षा कर गुरुजी विनम्रता से बोले-आप सबकी आत्मा का कल्याण हो। महाव्रत धारण करो, पाँच समितियों का पालन कर पञ्चेन्द्रियजयी बनो । यदि आर्यिका व्रत धारण करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है तो धोती के ऊपर एक चादर धारण कर सकती हो । क्षुल्लिकाओं का व्रत ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक के समान है । इस प्रकार आचार्य महाराज के मुखचन्द्र से निकली अमृत के समान वाणी को सुनकर वे सभी स्त्रियाँ सन्तुष्ट होकर आर्यिका व्रत धारण कर आत्मकल्याण का सनातन मार्ग दिखाती हुयी संसार में विहार करती हैं। जो देवी के समान और तीर्थंकरों को माताओं के समान हैं, वे साध्वी मेरे लिए मोक्ष मार्ग दिखलाये की इच्छा व्यक्त कर इस प्रकाश का समारोप किया । प्रस्तुत प्रकाश में वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण करते हुए ग्रन्थकर्ता लिखते हैं कि जो स्वकीय आत्मा के हितार्थ सल्लेखना धारण कर मुनिराज पथ पर चलते रहते हैं, वे मुनिराज मोक्ष मार्ग बतायें - जिस प्रकार कोई विदेश में रहने वाला मनुष्य विपुल धन अर्जित कर स्वदेश आने की इच्छा करता है किन्तु वह अपने साथ धन लाने में असमर्थ रहता है । इसी तरह यदि मनुष्य आत्मकल्याण करना चाहता है तो उसे सल्लेखना धारण करना चाहिये। संन्यास सल्लेखना प्रतिकार रहित उपसर्ग भयंकर दुर्भिक्ष और भयङ्कर बीमारी के होने पर लेना चाहिए । प्रीतिपूर्वक ली गयी सल्लेखना फलदायक होती है। संन्यास के योग्य मनुष्य निर्यापक मुनिराज के पास जाकर प्रार्थना करता है कि हे भगवन् संन्यास देकर मेरा जन्म सफल करो । निर्यायक मुनि क्षपक की स्थिति जानकार अपनी स्वीकृति देते हैं । क्रमशः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देखकर उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कराते हैं । निर्यापण विधि कराने में समर्थ साधु क्षुधा तृषा आदि से उत्पन्न कष्ट को अनेक दृष्टान्तों के द्वारा दूर करते रहते हैं । संन्यास मरण के प्रभाव से क्षपक स्वर्ग जाता है। साथ ही मेरू-नन्दीश्वर आदि के शाश्वत अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करता है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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