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________________ 128 के द्वारा किए गये प्रयत्नों का विशद विवेचन किये । ग्रन्थका के अनुसार जब तक जीवजातियों के ज्ञान के बिना "हिंसा का त्याग नहीं हो सकता। इसलिए संसारी जीवों की चार जातियाँ-(गतियां) नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतियों का भी वर्णन किया है । प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएं होती हैं और इन्हीं पाँच भावनाओं का पालन करते हुए महाव्रतो में स्थिरता आती है । “अनादिकाल से उस संसार में भ्रमण करने वाले जीव के दुःख समूह को नष्ट करने के लिए मुनिव्रत ही समर्थ है" की घोषणा कर इस महाव्रताधिकार का समापन हुआ है। पञ्चसमित्यधिकार नामक इस प्रकाश का प्रारम्भ ध्यानरूपी कृपाण से कर्मारिओं को जीतने वाले भगवान् महावीर की स्तुति से हुआ है । महाव्रतों की रक्षा के लिये ईर्या, भाषा एषणा, आदान-निक्षेपण और व्यत्सर्ग समितियों का वर्णन किया है । प्रमाद से रहित वृत्ति को "समिति" कहते हैं । चर्या तीर्थयात्रा, गुरु वन्दना और जिनधर्म के प्रसार के लिए नियम पूर्वक किया गया मुनियों का गमन ई तथा असत्यवचन का त्याग कर हित-मित और प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है । दिन में एक बार खड़े होकर पाणिपात्र में विधिपूर्वक प्राप्त हुए आहार को ग्रहण करना "एषणा समिति" कहलाती है । एषणा वृत्ति के पाँच अवान्तर भेदों का भी विवेचन है । कमण्डल, पिच्छी और शास्त्र को सावधानी से उठाना रखना ही "आदान-निक्षेपण" समिति हैं । व्युल्स समिति का विवेचन कर दोषों को नष्ट करने के लिए उद्यत भव्यजीवों को प्रमाद त्यागना चाहिए का उपदेश कर समिति-अधिकार नाम का यह प्रकाश समाप्त हुआ। इस इन्द्रियविजयाधिकार नाम के प्रकाश का आरम्भ मङ्गलाचरण से हुआ है, जिसमें इन्द्रिय विजयी साधुओं को प्रणाम किया है । इन्द्रियविजय-मूलगुणों का वर्णन करते हुए ग्रन्थकर्ता लिखते हैं कि -इन्द्रिय विषयों के अधीन होकर मानव इस दुःखपूर्ण संसार में भ्रमण करता रहता है । संसारी जीव जिह्वाइन्द्रिय के आश्रित होकर दूषित आहार से पीड़ित हो मृत्यु प्राप्त करते हैं । संसारी जीव घ्राण इन्द्रिय का भी दास होता है । किन्तु आत्मस्वरूप में रमण करने वाले मुनि वस्तुओं के स्वरूप का ध्यान रखते हुए दुर्गन्ध या सुगन्ध में माध्यस्थ्य भाव को प्राप्त होते हैं । धवल ज्योति का आकांक्षी कीट मृत्यु को प्राप्त होता है वैसे ही यह मनुष्य चक्षुइन्द्रिय के विषय का लोभी बनकर मृत्यु को प्राप्त करता है। किन्तु आत्मध्यान में लीनसाधु के लिए रूप गन्ध से प्रयोजन नहीं रहता। जिनको प्रशंसा सुनकर हर्ष और निन्दा सुनकर विषाद नहीं होता जैसे धीर-वीर मुनि कर्णेन्द्रिय जयी कहलाते हैं । जिसके राद्वेष का नाश हो गया है और जिनके संतोष और रोष उत्पन्न नहीं होता ऐसे साधु ध्यान से कर्मों का क्षय करते हैं का निर्देश कर इस प्रकाश का समारोप किया है। इस षडावश्यकाधिकार नामक प्रकाश के प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर मोक्ष लक्ष्मी पाने वाले सिद्ध-परमेष्ठियों को नमस्कार किया है। मंगलाचरण के पश्चात् आवश्यक शब्द का निरूक्तार्थ और समता, वन्दना, स्तोत्र, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कार्योत्सर्ग इन षडावश्यक कार्यों को मुनि श्रद्धा से करते हैं। 3 पद्य कं. 6 से 13 तक समता आवश्यक का अर्थ और गुणों का वर्णन है। साधुओं द्वारा जब चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर की स्तुति की जाये तब वन्दना नामक आवश्यक माना जाता है । ग्रन्थकर्ता ने एक तीर्थंकर के स्तवन वन्दना में महावीर स्वामी का स्तवनरूप पद्य क्र., 15 से 23 तक में सरल, सहज और प्रसादपूर्ण भाषा में 9 पद्यों में किया है।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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