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करते हुए केश लोंच करना, नग्न रहता, स्नान न करना, पृथिवी पर सोना, दातौन (मंजन) न करना, खड़े खड़े आहार करना और दिन में एक बार आहार लेना ये मुनियों के योग्य शेष सात गुण माने गये हैं । इस प्रकार गुरु के मुख से मूल गुणों का वर्णन सुन दीक्षा के लिये उद्यत मनुष्य ॐ कहकर केशों का लोंच कर वस्त्रावरण दूरकर दिगम्बर हो जाता है, तब गुरु उसका संस्कार कर पीछी और कमण्डल धारण कराता है । इस प्रकार वह छठवें
और सातवें गुण स्थान में आरोह-अवरोह करता हुआ सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र से युक्त हो गुरु (आचार्य) और संघस्थ मुनियों के साथ पृथिवी पर विहार करता है । इस प्रकार चारित्र का लक्षण पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों, पाँच इन्द्रियजय, षडावश्यक और सात सामान्य गुणों के वर्णन से सामान्य मूल गुणाधिकार नामक प्रथम प्रकाश समाप्त हुआ।
"सम्यग्चारित्र चिन्तामणि" के चारित्रलब्धि अधिकार नामक द्वितीय-प्रकाश के प्रारम्भ में भी ऋषि, मुनि यति और अनगार साधुओं को नमस्कार किया है । जो ज्ञानोपयोग से संयुक्त है, शुभलेश्याओं से सहित है, पर्याप्त है, जागृत है, योग्य द्रव्य क्षेत्र आदि से सुशोभित है. ऐसा मनुष्य कर्मक्षय करने वाली चारित्रलब्धि को प्राप्त होता है । विशुद्धि को प्राप्त कर मनुष्य प्रथम, चतुर्थ अथवा पञ्चम गुणस्थान से संयम को प्राप्त होता है।
संयम प्राप्त करने वाले मनुष्यों के प्रतिपात आदि-प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान संयम स्थान है । जो मनुष्य सङ्क्लेश की बहुलता से घटती विशुद्धि से चतुर्थ, पञ्चम अथवा प्रथम गुणस्थान में आते हैं, वे प्रतिपात स्थान हैं । जिस स्थान से मनुष्य संयम को प्राप्त होता है, वे प्रतिपद्यमान कहलाते हैं । इनके अतिरिक्त जो संयम के स्थान हैं, वे लब्धिस्थान कहे जाते हैं । क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से सहित भव्यमनुष्य अनन्तानुबन्धी बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रवृतियों का चतुर्थ से लेकर सप्तम गुण स्थान तक किसी भी गुणस्थान में उपशम कर सातिशय अप्रमत्तविरत होते हैं, वे ही मुनि अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त करते हैं । इस गुणस्थान में इनकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है । इस गुण स्थान का समय अन्तर्मुहूंत है । ये मुनि अन्तर्मुहूंत तक पूर्ववत् स्थितिकाण्ड घात आदि क्रियाओं को करते हुए नवम गुणस्थान में स्थित रहते हैं इस गुणस्थान से ही नवक द्रव्य और उच्छिष्टावली को छोड़कर मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है । अन्तर्मुहूर्त मैं सम्यक्त्वमिथ्यात्व को सम्यक्त्व प्रकृतिरूप कर मोहनीय कर्म को क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोह का क्षय करने के लिए वह क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने का प्रयत्न करता है।
आठ मध्यम कषायों की क्षपणा के पश्चात् स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय होता है । एक-एक अन्तर्मुहूंत में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुंवेद, संज्वलन, क्रोध, मान और माया का क्रमशः क्षय होता है । जब तक मोहनीय कर्म का एक कण भी विद्यमान रहता है, तब तक यह जीव इस संसार वन में भ्रमण करता रहता है । सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र भगवान् की आराधना का उपदेश देकर, इस प्रकाश का समारोप किया है ।
इस प्रकाश के आरम्भ में संसार के भोगों का परित्याग कर मोक्ष पाने वाले भगवान् नेमिनाथ को प्रमाण किया है । मोक्ष सुख के इच्छुक महापुरुष हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील
और परिग्रह इन पाँच पापों को पूर्णतः त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं । इन पाँच पापों के त्याग करने के लिए भव्यजीवों