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________________ 126 प्रस्तुत किया है तथा अन्त में मुक्ति साधक धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान का हिन्दी भाषा में विवेचन किया है। इसके पश्चात् दो परिशिष्ट संलग्न है(1) अकारादि क्रम से पद्यानुक्रमणिका, (2) ग्रन्थ में प्रयुक्त छन्दों की नामावली । सम्यक्चारित्र चिन्तामणि३३ . . सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र जिनागम का प्रतिपाद्य विषय है । इन विषयों पर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन जैनाचार्यों ने किया है । इसी श्रृंखला में श्रद्धेय डा. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने ग्रन्थत्रय की रचना की है- रत्नत्रयी का प्रथम अङ्ग सम्यक्त्व चिन्तामणि, द्वितीय अंग सज्ञान चन्द्रिका और तृतीय अङ्ग सम्यक् चारित्र- चिन्तामणि है। '. विवेच्य ग्रन्थ 13 प्रकाशों में विभाजित है और ग्रन्थ की कुल श्लोक संख्या 1072 है । जनसाधारण को चारित्र की महिमा से अवगत कराना ग्रन्थकार का प्रमुख लक्ष्य है, इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर सम्यक्त्व चारित्र- चिन्तामणि का सृजन किया है । अनुशीलन : श्रद्धेय डा. पन्नालाल जी साहित्याचार्य महोदय ने इस ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए अर्हन्तों, सिद्धों, उपाध्यायों के साथ भगवान् वृषभनाथ को प्रणाम किया है । इसके उपरान्त संसार परिभ्रमण के नाश के लिए इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है तथा सुधीजनों के प्रति स्वविनम्रता प्रदर्शित कर विभिन्न आचार्यों द्वारा विरचित ग्रन्थों में चारित्र की अलगअलग परिभाषाओं को एक रत्न माला में पिरोकर प्रस्तुत किया है । व्यवहार नय से चरणानुयोग की पद्धति से मुनियों की जो हिंसादि पापों से निवृत्ति है वही पृथिवी पर "चारित्र" नाम से. प्रसिद्ध है । चारित्र को विभिन्न अर्थों से स्पष्ट करके यह बताया गया है कि किस व्यक्ति को "सम्यक् चारित्र" की प्राप्ति है । अर्थात जो मनुष्य मोहनीय की सात प्रकृतियों को नष्ट कर उपशम, क्षय या क्षयोपशम कर जिसने "सम्यग्दर्शन" प्राप्त कर लिया है, जो कर्मभूमि में उत्पन्न है, भव्यत्वभाव से सहित है तत्त्वज्ञान से युक्त है, संसार - भ्रमण की सन्तति से भयभीत है, संक्लेश से रहित है उसे "चारित्र" की प्राप्ति होती है । सम्यक्चारित्र का इच्छुक भव्य मनुष्य बन्धुवर्ग से अनुमति लेकर स्नेहबन्धन को तोडकर पञ्च इन्द्रियों पर विजयप्राप्त कर शरीर पोषण से विरक्त होकर वन में आचार्य गुरुओं के पास जाता है और नमस्कार कर गुरु के वचनामृत सुनता है। आचार्य गुरु उपदेश देते हुए कहते हैं-यह संसार महादुः ख रूपी वृक्ष का कन्द है, इसलिए मुनिदीक्षा धारण करो । मैं मुनियों के अनुरूप आचरण बताता हूँ, मुनि अवस्था का उत्सुक भव्य मानव अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का पालन ईर्या, भाषा, एषणा, आदान, न्यास और व्यत्सर्ग इन पाँच समितियों से "महाव्रतों" की रक्षा करता है । सम्यग्ज्ञान के धारक मनुष्य के द्वारा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियां कही गयी हैं । मुनि दीक्षा के लिए उद्यत मनुष्यों को इन्द्रियों जीतना चाहिए, क्योंकि जो इन्द्रियों का दास वह दीक्षा नहीं ले सकता । साधु को प्रतिदिन छह आवश्यकों का पालन करना चाहिए । ये षडावश्यक समता, वन्दना, तीर्थं करों की स्मृति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग हैं । षडावश्यकों का पालन -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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