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________________ 116 सम्यग्दर्शन का साङ्गोपङ्गि विश्लेषण विद्यमान है । इस ग्रन्थ के वर्णनीय विषयों का आधार गोम्मटसार, (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड), तत्त्वार्थवार्तिक, पञ्चाध्यायी, तत्त्वार्थसार आदि ग्रन्थों को बनाया गया है, किन्तु काव्य रचना सर्वथा मौलिक है । ग्रन्थारम्भ में विस्तृत प्रस्तावना के माध्यम से सम्यग्दर्शन के स्वरूप, भेद, महिमा आदि का प्रतिपादन किया गया है। विषय को स्पष्ट करने के उद्देश्य से प्रारम्भि वक्तव्य अत्यन्त उपयोगी और सराहनीय है । सम्यग्दर्शन पर विशिष्ट प्रकाश डालने वाला यह लेख पंडित जी द्वारा सम्पादित "रत्नकरण्ड श्रावकाचार'no की प्रस्तावना का अंश है । विषय वस्तु - प्रथम मयूख सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति एवं माहात्म्य पर समीचीन व्याख्या प्रथम मयूख का प्रतिपाद्य विषय है । जैन तीर्थङ्करों, प्रातः स्मरणीय आचार्यों, धर्म-विद्यागुरुओं का विविध प्रकार के स्तवन करते हुए ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति की कामना ग्रन्थकार ने भावुकता के साथ की है । लेखक की सुरम्य, हृदयस्पर्शी शब्दरचना सर्वत्र प्रवाहशील है । अपने गुरुवर श्रद्धेय पं. गणेसप्रसाद वर्णी की स्तुति तन्मयता के साथ प्रस्तुत की है - येषां कृपा कोमल दृष्टिपातैः सुपुष्पिताभून्मम सूक्तिवल्ली। तान्प्रार्थये वर्णिगणेशपादान्, फलोदयं तत्र नतेन मूर्ना ।" सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पूर्व जीव की क्या परिणति होती है ? इसी तथ्य को समझाते हुए मिथ्यादृष्टि जीव की विभिन्न अवस्थाओं में दुर्दशा पूर्ण स्थिति का सजीव चित्रण किया गया है । जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्धं, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष इन तत्त्वों की यथार्थता से अपरिचित मिथ्यादृष्टि जीव दु:खी और परेशान रहता है । माया, अहङ्कार, रागादि दोषों एवं अविद्या तथा पापों में आस्था रखता है । इसीलिए वह मिथ्यात्व के अन्धकार में भटकता हुआ नरक, तिर्यञ्च मनुष्य तथा देव इन चारों गतियों में भी अपार दुःखों को भोगता है। उसे निजशुद्धात्म की उपलब्धि अभीष्ट नहीं रहती, इसीलिए मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तकाल से इस संसार में द्रव्य क्षेत्र. काल: भव और भाव इन पाँच परिवर्तनों को करता है। सम्यग्दर्शन के विवेचन में कृत सङ्कल्पित लेखक उसकी उत्पत्ति और महिमा पर प्रभावशाली प्रकाश डालता है। जिसका आशय यह है कि सम्यग्दर्शन की योग्यता रखने वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक, विशुद्धियुक्त, जागृत साकार उपयोगयुक्त चारों गति वाला भव्य जीव जब इसे धारणा करने में समर्थ होता है, तब क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना प्रायोग्य एवं कारण ये पाँच लब्धियाँ जीव को प्राप्त होती हैं । यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अन्य चार लब्धियाँ भव्य एवं अभव्य दोनों को प्राप्य है, किन्तु करण लब्धि भव्य जीव को ही मिलती है । इनके प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन होता है, सम्यग्दर्शन का महत्त्व और उसकी प्रकट महिमा का दिग्दर्शन लेखक ने व्यापकता के आधार पर किया है । जीव को सांसारिक बन्धनों के उन्मुक्त करने वाले सम्यग्दर्शन को जो धारण करता है, वह निडरता और आत्मानन्द की भोगी, स्वात्मनिष्ठा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य का उपासक बन जाता है । सरोवर में विद्यमान कमलपत्र के समान सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोह के उदय से गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसमें लीन नहीं होता सम्यग्दर्शन ऋद्धि-सिद्धि, नौ निधि, चौदहरत्नों को सहज में ही प्रदान करता है। इससे अलङ्कत पुरुष तेजस्वी, प्रतापी और सांसारिक आवागमन से विलग हो जाता है। मिथ्यात्व
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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