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________________ 115 हरिचन्द्र एक अनुशीलन शोध प्रबन्ध पर भी पी-एच डी. की उपाधि आपको उनके ही सहयोग से प्राप्त हुई थी । अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद के तो आप प्राण हैं । आपने अनवरत तीस वर्ष तक इस परिषद् की सह मन्त्री और मन्त्री के रूप में सेवा की है । वर्तमान में आपका जीवन आचार्य प्रवर विद्यासागर जी के निर्देशानुसार वर्णी दिगम्बर जैन रुकुल, पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर में अध्यापन करते हुए आत्मध्यान में व्यतीत हो रहा है । " साहित्य साधना" आपकी श्रुत सेवा स्तुत्य है । विशाल पुराणों के सम्पादन, उनके अनुवाद ग्रन्थों की टीकाएं और मौलिक ग्रन्थों के रूप में आपने सर्वाधिक लेखन कार्य किया है। अब तक आपकी लेखनी से निष्पन्न 64 ग्रन्थ और आठ स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । आपको अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है । आपकी साहित्यिक सेवाएँ साहित्य जगत में सदैव स्मरणीय रहेंगी ।' मोक्षमार्ग प्रतिपादक चिन्तामणि - त्रय जैन धर्म में आचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है । किसी भी धर्म के अन्तस्तल को जानने के लिए उसके आचार-मार्ग को जानना विशेष रूप से वाञ्छनीय है । क्योंकि आचार मार्ग के प्रतिपादन में ही धर्म का धर्मत्व सन्निविष्ट रहता है । अतः हम कह सकते हैं। " आचारः प्रथमो धर्मः" अर्थात् आचार ही प्रथम धर्म है । इसलिए द्वादशाङ्ग में प्रथम अङ्ग "आचाराङ्ग' . है । आचारण शुद्धि से वैचारिक शुद्धि होती है । जिससे मुक्तिमार्ग प्रशस्त होता है । सर्वज्ञ, तीर्थंकरों ने आचार-शुद्धि से सांसारिक दुःखों का नाश किया है । दुःख सागर से पार होने के लिए सम्यक्चारित्र जहाज के समान है । - ?? प्रत्येक जीव की आत्मा अनन्त शक्तिमान् है । परन्तु कर्म श्रृंखला से जकड़ा होने के कारण आत्मा का ज्ञान स्वभाव रूप प्रकट नहीं हो पाता । जीव काषायिक वासना से ही इस दुःखमय संसार के कर्मों से बँधा हुआ है और इन बन्धनों को नष्ट करने का सर्वाङ्गीण उपाय सम्यग्चारित्र है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यचारित्र जिनागम के प्रमुख प्रतिपाद्य विषय हैं। इन विषयों में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन जैनाचार्यों ने किया है। इसी श्रृंखला में श्रद्धेय डॉ. पन्नालाल जी ने " सम्यक्त्व चिन्तामणि' 'सज्ज्ञान- चन्द्रिका " और " सम्यक्चारित्र चिन्तामणि" कृतियाँ संस्कृत भाषा में विविध छन्दों में लिखी है । 9944 सम्यक्त्व चिन्तामणि : सम्यक्त्व चिन्तामणि' (पं. पन्नालालजी जैन साहित्याचार्य द्वारा विरचित) जैन-दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ है । इसमें सम्यग्दर्शन से सम्बद्ध प्रमुख विषयों का आकलन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों में मुख्य रुप से सम्यग्दर्शन के विषयभूत सात तत्त्वों का निरूपण है तथा जीव के भेदों, संसारी जीव के पञ्च परावर्तनों, चौदह गुण स्थानों, चौदह मार्गणाओं', असंख्यात द्वीप समुद्रों, छह द्रव्यों, आस्रव के कारणों, कर्म के भेद-प्रभेदों, गुणस्थानों में बन्ध-व्युच्छिति, बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश चारों भेदों, संवर के कारणों . आदि का विवेचन समाविष्ट किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ 10 मुखों में निबद्ध है । ग्रन्थ की कुल श्लोक संख्या 1816 है । यह ग्रन्थ जैन दर्शन, धर्म और ज्ञान का कोश ही है। इसमें सत्प्रवृत्तियों, आधारभूत तत्त्वों और
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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