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की कालिमा को तिरोहित करने वाला सम्यग्दर्शन मोक्ष के द्वार पर लगे हुए किवाड़ों को खोलने में सक्षम है। भावार्थ यह है कि सम्यग्दर्शन मोक्ष प्रदान करता है।
सम्यग्दृष्टि लोकादि सप्त भयों से भयभीत नहीं होता । ज्ञानमय प्रवृत्ति रखने के कारण वह मृत्यु से नहीं डरता । वैचारिक श्रेष्ठता एवं निर्मल हृदय से सम्पन्न आप्तप्रणीत शास्त्रों के विषय में पृथ्वी पर निशङ्क रहता है । इन्द्रिय-जन्य सुखों एवं तृष्णा को व्यर्थ समझता हुआ वह नि:काङ्क्षत्व को प्राप्त होता है । किन्तु मोक्ष की इच्छा अवश्य करता है । पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का विचार करने वाला सम्यग्दृष्टि निर्विचिकित्सा से युक्त होता है । वह अमूढ़ दृष्टि का धारक होता है । कभी किसी के दोषों को अभिव्यक्त न करके अपने गुणों को विकसित करता है । अत: उपगूहन अङ्ग को सार्थक करता है । धर्म को स्थिर करने के हर सम्भव प्रयास करने के कारण वह स्थितिकरण का धारक है । धर्मयुक्त मनुष्यों पर प्रीति रखता हुआ सम्यग्दृष्टि वात्सल्य अंग का महत्त्व बढ़ाता है । जिन धर्म का प्रभाव फैलाना ही प्रभावना अङ्ग है, यह भी इसमे पाया जाता है । सम्यग्दर्शन के इन स्वरूप सम्बन्धित अङ्गों को सम्यग्दृष्टि नियमपूर्वक धारण करता है। सम्यग्दृष्टि जीव आठ प्रकार के मदों एवं 6 अनायतनों तथा तीन मूढ़ताओं से सर्वथा दूर रहते हैं । शङ्कादि 8 दोषों से रहित है ।" द्वितीय मयूख
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इस मयूख में जीवतत्त्व के स्वरूप और भेदों का विश्लेषण है । सम्यग्दर्शन के भेदों पर दृष्टिपात करने के पश्चात् लेखक ने सम्यग्दर्शन के आधारभूत सात तत्त्वों का निरूपर्ण किया है । वस्तु के यथार्थ स्वरूप को तत्त्व कहते हैं और तत्त्वरूप अर्थ का श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है । सात तत्त्वों का सामान्य परिचय दिया गया है मूलभूत दो तत्त्व जीव और अजीव हैं। इन दोनों के संयोग का कारणभूत तत्त्व आस्रव है । आस्रव का रुक जाना संवर कहलाता है । सञ्चित कर्मरूप अजीवत्त्व का क्रम-क्रम से पृथक् होना निर्जरा कहा गया है और सम्पूर्ण रूप से कर्मरूप अजीव का संयोग आत्मा से सदा के लिए छूट जाना मोक्ष है। अब जीव तत्त्व का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए पंड़ित जी अपने बोधगम्य शैली में कहते हैं
" तत्र स्याच्चेतना लक्ष्मा जीवस्तत्त्व महेश्वरः । ज्ञानदर्शन भेदेन सापि द्वेधा विभिद्यते ॥
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अर्थात् जीव उसे कहते हैं " जिसका लक्षण चेतना है । यह जीव स्व पर प्रकाशक होने से सब तत्त्वों का राजा है। ज्ञान और दर्शन ये दो भेद चेतना के होते हैं ।" इस प्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव इन तीनों दोषों से रहित चैतन्य ही जीव का लक्षण विद्वानों को मान्य है। जीव के कर्मों के अनुसार ही उसके औपशामिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक ये पांच असाधारण भाव होते हैं । इनके कुल मिलाकर 53 भेद हैं । विशेषता यह है कि पारिणामिक भाव कर्म निरपेक्ष होता है ।
जीव के भेदों का सूक्ष्म परीक्षण भी ग्रन्थकार ने अत्यन्त सावधानी पूर्वक प्रतिपादित
किया है
विभिद्यते ।
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"संसारिमुक्त भेदेन जीवो द्वेधा तत्र कर्मचयातीतः सिद्धो नित्यों निरञ्जनः ॥
भावार्थ यह है कि संसारी और मुक्त ये जीव के दो भेद हैं - उनमें जो कर्म समूह से रहित है, वे मुक्त कहलाते हैं । इन्हें सिद्ध, नित्य और निरजन भी कहते हैं। जो द्रव्य,