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________________ - 104 अनेके सुशिष्याः प्रसिद्धा तवेद्ध, स्तुवे वीरसिंह महाचार्यवयः । शिवाब्धिं च सूरि गुणाब्धिं समुद्रं मुदा पट्टसूरि स्तुवे धर्मसिन्धुम् ॥ (4) दूसरी रचना आचार्य शिवसागर महाराज की स्तुति है । इसमें कुल ग्यारह पद्य हैं। इनमें अन्तिम पद्य अनुष्टुप् छन्द में और शेष बसन्ततिलका छन्द में निर्मित है । आर्यिका ज्ञानमती ने आचार्य शिवसागर महाराज की स्तुति करते हुए, उन्हें आचार्य वीरसागर महाराज के शिष्यों में श्रेष्ठ शिष्य बताया है । उन्होंने उन्हें रत्नत्रय रूपी निधि की रक्षा करने में प्रयत्नशील, श्रेष्ठ आचार्य तथा मुनिवृन्द से सेवि होने का उल्लेख भी किया है श्री वीरसागर मुनीश्वर शिष्यरत्न, रत्नत्रयाख्य-निधिरक्षण सुप्रयत्नः। आचार्यवर्य मुनिवृन्द सुसेव्यमान, भक्त्या नमामि शिवसागरपूज्यपादम् ।। (1) आचार्य श्री मासोपवासी थे । शुभकर्म निष्ठ थे । स्वाध्याय और ध्यान में लीन रहते थे । साधुओं के द्वारा सेवित थे । परीषहों के परम् विजेता थे । ऋषियों द्वारा पूज्य थे । आर्यिका ज्ञानमती ने अपने शिव-सुख की प्राप्ति में आचार्य श्री को हेतु होने की कामना की है - मासोपवासचरणः शुभकर्मनिष्ठ : स्वाध्यायध्यानरतसाधुभिरीड्यमानः । मुख्यः परीपहजयी ऋषिरादिपूज्यः भूयात स मे शिवनिधिः शिवसौख्यसिद्ध्यै ॥ (10) अपने और जगत के सभी भव्य जीवों के कल्याण की कामना करते हुए अन्त में आर्यिका ज्ञानमती ने आचार्य श्री की नित्य वन्दना करने का उल्लेख किया है - मया संस्तूयते नित्यं शिवसिन्धुर्मुनीश्वरः । कुर्याच्छिवं सुभव्याय मह्यं च जगतेऽपि च ॥ (11) तीसरी रचना का शीर्षक है - श्री महावीर कीर्त्याचार्य स्तुति 32 सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी निधि के धारक, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित, वस्त्र-विहीन मुनीन्द्र आचार्य महावीरकीर्ति, महाराज को करुणा और पुण्य का सागर निरुपित करते हुए आर्यिका ज्ञानमति ने इन विशेषणों का भुजङ्गप्रयात् छन्द में निम्न प्रकार उल्लेख किया है - सुरत्नत्रयाख्यं निधिं संदधानः तथापि द्विधासङ्गमुक्तो विवस्त्रः । सुकारुण्य पुण्यस्य रत्नाकरो यः स्तुवे तं महावीरकीर्तिं मुनीन्द्रम् ॥ (1) आचार्य श्री रागी भी थे और विरागी भी, आर्यिका ज्ञानमती जी उन्हें पञ्च परमेष्ठियों में राग होने से रागी और इन्द्रिय-विषयों में राग न होने से विरागी निरूपित किया है। माता जी ने भव्य जनरूपी कमलों के विकास में आचार्य श्री को सूर्यस्वरूप और सिद्धान्त रूपी समुद्र के लिए चन्द्र स्वरूप मानने सम्बन्धी उनके इन विचारों की निम्न पदावली में अभिव्यक्ति पञ्चगुरुषुरागी सन्, विरागी विषयेषु च । भव्याम्भोरुह भास्वांस्त्वं सिद्धान्ताम्बुधिचन्द्रमाः ॥ (3) आर्यिका ज्ञानमति ने इन्हीं आचार्य से विद्या प्राप्त की थी । उन्होंने विद्या प्राप्त करके | शीघ्र अविनश्वर सुख और ज्ञान प्राप्ति की भी कामना की है - भगवंस्त्वत्प्रसादेन लब्ध्वा विद्यां सुदुर्लभाम् । प्रतिपित्साम्यहं तुर्यज्ञानं सौख्यमनश्वरम् ॥ (10)
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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