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________________ 103 आर्यिका ज्ञानमतीमाता जी जीवन परिचय : आपका जन्म ईसवी 1934 के आसोज मास की पूर्णिमा तिथि में टिकैतनगर (बाराबंकी) में अग्रवाल अन्वय के गोयल गौत्र में सेठ छोटेलाल जी के घर हुआ था। मोहनदेवी आपकी मातेश्वरी हैं । आपके चार भाई और नौ बहिनें हैं । बाल्यावस्था का नाम "मैना" था । आपको वैवाहिक बन्धन इष्ट नहीं हुआ । ब्रह्मचर्य की आराधना स्वरूप उन्नीस वर्ष की उम्र में आपने ईसवी उन्नीस सौ बावन में शरत् पूर्णिमा के दिन बाराबंकी में आचार्य देशभूषण महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत और ईसवी उन्नीस सौ त्रैपन में चैत वदी एकम के दिन श्री महावीर जी में क्षुल्लक दीक्षा ली थी। क्षुल्लक अवस्था का नाम वीरमती था । आर्यिका. दीक्षा स्व. वीरसागर महाराज से ईसवी उन्नीस सौ छप्पन में माधोराजपुरा (जयपुर) में ली थी । अब आपका नाम ज्ञानमती रखा गया था । वैदुष्य - जैन साहित्य की आपने अपूर्व सेवा की है । अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद, इन्द्रध्वज विधान, मूलाचार और नियमसार आदि अनेक रचनाएँ हैं, जिनसे समाज लाभान्वित हुआ । “सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका आपकी ही देन है । हस्तिनापुर आपकी कर्मस्थली है । यहाँ आपके द्वारा जम्बूद्वीप की रचना करवायी गयी है । जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ का प्रवर्तन करके जन-जन को ज्ञान ज्योति से आलोकित करने की योजना आपकी सूझ-बूझ का ही प्रतिफल है । आप बहुश्रुताभ्यासी, चरित्रकुशल आर्यिका हैं । आपके कुशल नेतृत्व में जो हस्तिनापुर का विकास हो रहा है वह युगों-युगों तक आपके कृतित्व और व्यक्तित्व को उजागर करता रहेगा 29 आर्यिका ज्ञानमती की संस्कृत रचनाएं : आर्यिका ज्ञानमती की संस्कृत में तीन स्फुट रचनाएँ प्राप्त हैं । वे क्रमशः आचार्य शान्तिसागर, आचार्य शिवसागर और आचार्य महावीरकीर्ति महाराज की स्तुतियों के रूप में प्रकाशित हुई हैं। आचार्य शान्तिसागर स्तुति में आठ पद्य हैं । आर्यिका ज्ञानमति ने अपनी इस रचना में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज की स्तुति करते हुए उन्हें रत्नत्रय और सव्रतों से विभूषित, चतुर्विध सङ्घ का स्वामी मोह महामल्ल का विजेता तथा श्रेष्ठ मुनि होने की उद्घोषणा की है - सुरत्नत्रयै सवतैर्भाज्यमानः चतुःसङ्घनाथो गणीन्द्रो मुनीन्द्रः महामोह-मल्लैक-जेता यतीन्द्र स्तुवे तं सुचारित्रचक्रीश सूरिम् (1) माता जी ने आचार्य श्री के द्वारा ताम्रपत्र पर महान् ग्रन्थ षट्खण्डागम के उत्कीर्ण कराये जाने को एक महान कार्य बताते हुए उसके चिरस्थायी होने की कामना की है। महाग्रन्थराजं सुषट्खण्डशास्त्रं सुताम्रस्यपत्रै समुत्कीर्णमेव । अहो ! त्वत्प्रसादात् महाकार्यमेतत् प्रजातं सुपूर्णं चिरस्थायि भूयात् ॥ आचार्य श्री की पद्य परम्परा में वीर सागर, शिवसागर और महाराज धर्मसागर के नामों का उल्लेख किया गया है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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