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________________ 99 - तीर्थक्षेत्र विहारी प्रथितपृथुगुणः मुक्तिरामाभिलाषी रागद्वेषापहारी हितमितवचनैर्भव्य संबोधकारी । बाह्यान्तग्रन्थत्यागी परमृतसमं सर्वतत्त्वापकारी तंसाधुनामधीश स्थिर विशदधियं संस्तवे साधुसेव्यम्(3) "वन्देऽहम् इन्दुमातरम्' शीर्षक रचना में नो श्लोक हैं। इन श्लोकों में आर्यिका इन्दुमति का परिचय दिया गया है । इनका पूर्व नाम जडावती था, ये राजस्थान के डेह ग्रामवासी श्री चन्दनमल की पत्नी थी - मरुवाट सुदेशेऽ स्मिन् डेहग्रामः सुशोभनः ।। तत्र चन्दनमल्लस्य भार्या नाम्ना जडावती ॥ (1) आपने आचार्य चन्द्रसागर जी से वि. सं. 2000 के आखिन मास के शुक्ल पक्ष में दशमी तिथि के दिन कसावखैड ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा तथा संवत् 2006 के आखिन मास से शुक्ल पक्ष में एकादशी के दिन आर्यिका दीक्षा ली थी । इन तिथियों का लेखिका ने निम्न प्रकार उल्लेख किया है - विक्रमे द्विसहस्त्राब्दे दशम्यामाश्विने सिते, ग्रामे कसावखेडऽभूत्, एता क्षुल्लकदीक्षया (5) विक्रमाब्दे तथा लब्धा, द्विसहस्रे षडुत्तरे आश्विनी शुक्ल रुद्राऽके, शुभदीक्षा निजेश्वरी ॥ (6) सागर-सागर से पार होने के लिए शास्त्र रूपी जहाज का निरूपण करते हुए लेखिका ने आर्यिका डन्दमति को उस पर आरूढ़ बताकर उन्हें जैनधर्म में आसक्त और धर्माचरण में तत्पर बताया है - जिनधर्मसमासक्ता धर्माचरण तत्परा आरूढा शास्त्रपोतं वा चरितं भवसागरम् ।। (3) तीसरी रचना आचार्य शिवसागर महाराज के प्रति श्रद्दाञ्जलि है18 इस रचना में आठ श्लोक हैं, सभी में पद-पद पर उपमाओं का प्रयोग हुआ है । पदों में लालित्य भी है। लेखिका ने आचार्य वीरसागर को नामोल्लेख करते हुए उन्हें आचार्य शिवसागर का गुरु बताया है । आचार्य शिवसागर ने उनके चरण कमलों में ही विशुद्ध मन से निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण की थी। उन्होंने जीवों को मेघ के समान धर्मामृत की वर्षा करते हुए शिष्यों के साथ अनेक देशों में विहार किया था । इस विषय का आर्यिका सुपार्श्वमती ने इसमें उल्लेख किया है यो वीरसागर गुरोश्चरणारविन्दे धृत्वा तु शुद्धमनसा हि जिनेन्द्रमुद्राम् । धर्मामृतं तनुभृतां धनवत्प्रवर्तन् शिष्यैः सहैव विजहार वहूंश्च देशान् ॥ (1) आर्यिका सुपार्श्वमती की रचनाओं में प्रवाह है । वर्णन शैली चित्ताह्लादक है। उन्होंने आचार्य शिवसागर महाराज के चरण कमलों की सहर्ष आदरपूर्वक अपनी अभ्यर्चना किये जाने का उल्लेख करके, उन्हें संसार ताप को शान्त करने के लिए चन्द्रमा और भव्य जन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य की उपमा दी है - संसारताप परिमर्दनशीतरश्मिं भव्याब्जबोधनविधौ दिननाथतल्यम् । कल्याणसागरगुरोश्चरणारविन्दं संपूजयामि समुदा महतादरेण ॥ (5)
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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