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________________ | 98 आर्यिका सुपार्श्वमति माता जी परिचय आपका जन्म राजस्थान में नागौर जिले के मैनसर नामक ग्राम में श्री हरकचन्द्र जी चूड़ीवाल के घर. वि. स. 1985 फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन हुआ था । माता-पिता ने आपका नाम "भंवरी" रखा था । बारह वर्ष की अवस्था में आपका विवाह नागौर के श्री इन्द्रचन्द्र जी के साथ हुआ था । विवाहित जीवन सुखकर न हुआ । विवाह के तीन मास बाद ही ये विधवा हो गयी थी । संकट के समय इन्होंने धर्म की शरण ली। धर्मध्यान करते हुए आपको मुनि अजितसागर का योग मिला । आपने उनसे विद्याध्ययन किया । जयपुर खानिया में वि. सं. 2014 भाद्रपद शुक्ला 6 के दिन आचार्य श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ली थी । यह दीक्षा तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के गर्भकल्याणक के दिन सम्पन्न होने से आचार्य श्री ने इनका नाम आर्यिका सुपार्श्वमती रखा था । रचनाएं - आपने श्रुत सेवा का आदर्श रखा है । आपके मौलिक और अनूदित अनेक ग्रन्थ हैं इनके नाम हैं-परम अध्यात्म तंरगिणी, सागर धर्मामृत, नारी चातुर्य, अनगार धर्मामृत, महावीर और उनका सन्देश, नयविवक्षा, पार्श्वनाथ पञ्चकल्याणक, पञ्चकल्याणक क्यों किया जाता है, प्रणामाञ्जलि, दशधर्म, प्रतिक्रमण, मेरा. चिन्तन, नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ,(दश भाग) प्रेमयकमल-मार्तण्ड, मोक्ष की अमरवेल रत्नत्रय,राजवार्तिकम, आचारसार,लघु प्रबोधिनी कथा, और रत्नत्रय चन्द्रिका15 षट्प्राभृतम् वराङ्गचरित्र, मेरा चिन्तवन आदि । वैदुष्य आर्यिका सुपार्श्वमति माता जी अभीक्षण ज्ञानोपयोग की साधना, करके अनेक ग्रन्थों का मन्थन निरन्तर करती है । आपकी दिनचर्या ध्यान, तप, साधना, एवं साहित्य सृजन में ही सम्पन्न होती है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़ आदि भाषाओं पर आपका पाण्डित्यपूर्ण अधिकार हैं । आपने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के अनेक ग्रन्थरत्नों का सम्पादन और अनुवाद तो किये ही हैं । हिन्दी एवं संस्कृत में मौलिक रचनाएं भी की हैं । वे उच्चकोटि की कवयित्री परम विदुषी आर्यिका हैं । प्रश्नकर्ताओं की शङ्काओं का समाधान करने में परम निष्णात हैं । प्रभावक प्रवक्ता हैं । निष्काम साधना और सदाचरण के समुन्नयन में ही आपका समय व्यतीत हो रहा है । आप शतायुष्क प्राप्त करें। आर्यिका सुपार्श्वमती की संस्कृत रचनाएं ... संस्कृत भाषा में प्रणीत आरकी पाँच स्फुट रचनाएं हैं । इनमें प्रथम रचना आचार्य महावीरकीर्ति महाराज के प्रति श्रद्धाञ्जलि है ।16 पांच पद्म की इस रचना में आर्यिका सुपार्श्वमती ने अपने दीक्षा गुरु आचार्य विमलसागर को नमन करते हुए विद्या गुरु आचार्य महावीर कीर्ति महाराज को श्रद्धा-सुमन समर्पित करके उनकी संस्तुति की है । उन्होंने इस संस्तुति में आचार्य महावीर कीर्ति महाराज को मुक्तिरमा का अभिलाषी, राग-द्वेष को दूर करने वाले, हितमित बचनों से भव्य जनों का उपदेशक, परिग्रह त्यागी, सभी का उपकारी, और स्थिर तथा निर्मल बुद्धिवाला, साधुओं के द्वारा सेव्य बताकर उनकी संस्तुति की है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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