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________________ 96 नख कम्बल, पक्षी तथा उसका पंख शीलभग स्त्री-पुरुष, रजस्वला स्त्री, कुत्ता, बिल्ली, मुर्दे का स्पर्श, माँस के बाल हो तो भी भोजन त्यागना चाहिये । यदि भोजन के समय किसी का मरण, रुदन, अग्नि, लूटपात, धर्मात्मा पर सङ्कट, नारी का उपहरण, जिन प्रतिमा भेदन आदि से सम्बन्धित समाचार सुने तो भी उसे, नियमानुसार भोजन त्यागना चाहिये। इस प्रकार उक्त दर्शन, स्पर्श, श्रवण सम्बन्धी भोजन के अन्तराय कहे गये हैं। श्रावक को चक्की, रसोई, पानी, चंदोवा, बाँधना भी बताया गया है, उसे भोजन, मैथुन, स्नान, मलत्याग, वमन तथा पूजन, यज्ञ, सामायिक, दान और गमन के समय मौन धारण करना निर्धारित है । उसे अपने दैनिक कार्यों की समीक्षा और माला का जाप करना भी आवश्यक है । श्रावकों को रौद्र ध्यान का परित्याग और धर्मध्यान की आराधना भी नियमानुकूल | करना चाहिये । इस अध्याय में मृतदेह का अग्निसंस्कार अस्थिविसर्जन, एवं सूतक की भी समीक्षा की गयी है । " सूतक " एक अशुद्धि हैं, जिसे दूर करने के लिए सफाई की जाती है । ग्रन्थकार ने नास्तिक प्रवृत्ति रखने वालों की घोर (आलोचना) निन्दा की है. उन्होंने कहा है कि सुख शान्ति की प्राप्ति के लिए धर्म में आस्था करना प्रत्येक मानव का प्रधान कर्तव्य है । | श्रावक पंचमोध्याय - इस अध्याय में द्वितीय प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा तक के समस्त व्रतों का सातिशय विवेचन है । इसमें श्रावक के 12 व्रतों का सांगोपांग निदर्शन ही प्रस्तुत अध्याय | की विषय वस्तु है । इनमें पाँच अणुव्रत + तीन गुणव्रत +चार शिक्षाव्रत सम्मिलित के एक देश परित्याग को अणुव्रत कहते हैं । अणुव्रतों को दोषरहित करने और गुणवृद्धि करने के लिए गुणव्रतों का पालन किया जाता है और अणुव्रतों को महाव्रतों में परिवर्तित करने के लिए गृहस्थ को शिक्षाव्रत उपयोगी होते हैं । उक्त समस्त व्रतों का स्वरूप और उनके अतिचारों का विवेचन किया गया है । इस प्रकार श्रावक के 12 व्रतों और उनके अतिचारों का सम्यका अध्ययन प्रस्तुत करने के पश्चात् श्रावक की शेष 9 प्रतिमाओं के स्वरूप और विशेषताओं से भी परिचय कराया गया है । अन्ततोगत्वा ग्यारहवीं प्रतिमा के अन्तर्गत क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिकाओं के स्वरूप, द्वादशव्रतों के भेदों एवं साधक के स्वरूप पर प्रमुख रूप से विचार किया गया है । श्रावक व्रत की समाप्ति ऐलकपद में ही हो जाती है। श्रावक के 12 व्रत, जो द्वितीय प्रतिमा में धारण किये जाते हैं । ग्यारहवीं प्रतिमा में अपनी मर्यादा समाप्त करके महाव्रतत्व को प्राप्त कर लेते हैं । ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के अन्त में अपने गुरुजनों का स्मरण करते हुए ग्रन्थ रचने का प्रयोजन और विनम्रता भी प्रकट की है । सुवर्णसूत्रम्" "सुवर्णसूत्रम्" चार पद्यों में निबद्ध लघु काव्य रचना । यह कृति विश्व में शांति की स्थापना एवं विश्व के कल्याण हेतु धर्म के सर्वत्र प्रसार जैसे महनीय लक्ष्य को लेकर रची गई है। अनुशीलन - "सुवर्णसूत्रम्" का प्रारम्भ श्री परमपूज्य वीर जिनेन्द्र की स्तुति एवं नमन से हुआ है । तदुपरान्त जैनधर्म के स्वरूप का प्रतिपादन किया है "धनस्य बुद्धेः समयस्य शक्तेर्नियो जनं प्राणिहिते सदैव । स जैनधर्मः सुखेदाऽसुशान्तिर्ज्ञात्वेति पूर्वोक्तविधिर्विधेयः ।। 12
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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