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________________ | 95 सांसारिक प्राणी इनमें ग्रस्त रहते हैं । इससे पश्चात् सम्यक्त्वी के अष्टगुणों का स्वरूप भी सन्निविष्ट है । ये सभी गुण श्रावकों को अनिवार्य होते हैं इसी अध्याय में सम्यग्दर्शन पाँच अतिचारों" का भी विवेचन हुआ है। तृतीयोध्याय - धर्ममार्ग से च्युत कराने वाली आदत अंकित है - द्यूतं मासं सुरा वेश्या स्तेयामाखेटकं तथा । परस्त्रीसङ्गमश्चैव सप्तानि व्यसनानि तु ॥ __ ये व्यसन प्रत्येक मानव के लिए घातक हैं । इनका त्याग करना श्रेयस्कर है । मानव को पथभ्रष्ट करने वाले पञ्चपाप' हैं और इनका त्याग करना पंचाणुव्रत कहलाता है । ये पञ्चाणुव्रत गृहस्थ श्रावकों को धारण करना नितान्त आवश्यक है, इससे सुख और शान्ति प्राप्त होती है । श्रावक को आत्मोन्नति चारित्र से ही सम्भव है जिनोक्त सन्मार्ग पर श्रद्धा करने के साथ ही उस पर अग्रसर होना "चारित्र" है । श्रावक के चारित्र में मूलव्रत आठ हैं । इनको धारण करने वाला ही वास्तविक (सच्चा) श्रावक है । "अभक्ष्य" का अर्थ है खाने के अयोग्य । जिन पदार्थों में जीव हिंसा की संभावना रहती है उन्हें ग्रहण नहीं करना चाहिये - पदार्थों में मक्खन अचार, बैंगन, मधु तथा बैर, मकोर के फल की सम्मिलित हैं । आचार्य श्री ने लोकनिन्द्य स्याज, लहसुन तथा उन्मत्त बनाने वाले मदिरा, गाजा, भांग, अफीम आदि पदार्थों से श्रावकों को सवर्था दूर रहने का उपदेश दिया है । मूलव्रत के अतिचारों02 के सन्दर्भ में कहते हैं कि विचारपूर्वक भोजन करने वाले का व्रत ही प्रशंसनीय है । सप्तव्यसनों के अतिचार भी विकारवर्धक है। अत: दुष्प्रभाव को देखते हुए इनका परित्याग कर देना चाहिये । चतुर्थोध्याय - श्रावक के दैनिक कार्यों तथा दान जप, पूजा, शील आदि का विवेचन है । सच्चे साधुओं को श्रावक द्वारा दान दिया जाना श्रेयस्कर है । श्रावक को चारों पुरूषार्थों की सिद्धि के लिए कृतसंकल्प रहना चाहिये । वर्षाकाल में उन्हें धर्मसाधन तथा अन्य समय में नीतिपूर्वक धनार्जन करना चाहिये । इसके साथ ही उन्हें अपने राष्ट्र एवं धर्म के उद्धार के लिए अहिंसा का प्रचार प्रसार और वात्सल्यभाव की प्रतिष्ठा करना चाहिये । आत्मा के कल्याणकारी उत्तम दस धर्म05 है । जो गृहस्थ सम्यग्दृष्टि तथा श्रावक को अनुकरणीय है। इनका उत्तमरीति से पालन करने के साथ ही द्वादश सद्भावनाओं का भी विचार करना श्रावक का प्रमुख कर्तव्य है ।। इस अध्याय में ही गृहस्थ को सन्मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होने के लिए शास्त्रों का पठन-पाठन एवं चिन्तन-मनन और विधिपूर्वक स्वाध्याय आवश्यक बताया गया है। जैनागम चार अनुयोगों में विभाजित है । जिनका विधि पूर्वक अध्ययन-अनुशीलन शान्ति एवं मुक्तिमार्ग का सामीप्य कराता है। इनके साथ ही अपने ज्ञान की अभिवृद्धि के लिए न्याय व्याकरणादि शास्त्रों का भी स्वाध्याय करना चाहिये। प्रसङ्गोपात ग्रन्थकार ने श्रावक के भोजन सम्बन्धी अन्तराय का विश्लेषण किया है | - उसे मदिरा, माँस, अस्थि, रक्त की धारा, शरीर से निकला आईचमड़ा मृत पंचेन्द्रिय जीव का शरीर एवं मलमूत्रादि अपवित्र पदार्थों में से भोजन के समय किसी का भी दर्शन हो जाये तो अन्तराय के कारण उसे भोजन त्यागना अनिवार्य है । इसी प्रकार यदि शुष्क कपड़ा, HDADIO macardiumATURAL
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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