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________________ | 94 आकार - यह ग्रन्थ पाँच अध्यायों में विभक्त है जिनमें 212 श्लोक सम्मिलित हैं। प्रयोजन - यह कृति जैनधर्म के प्रमुख विद्धान्त अहिंसा को लेकर किये जाने वाली आलोचना का खण्डन करने के लिए रची गयी हैं । “अहिंसा कायरपन और राष्ट्रद्रोही हमलों का सामना करने में अक्षम सिद्ध हुई है - ऐसे आक्षेपों का उत्तर, अहिंसा का स्वरूप उसकी सीमा एवं उपयोगिता को निर्धारित करने के लिए ही उक्त ग्रन्थ की रचना हुई है, ऐसा संकेत : ग्रन्थ के अन्तिम पृष्ठों पर प्राप्त प्रशस्ति से भी मिलता है । ग्रन्थ परिचय - इस कृति में पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक श्रावकों के स्वरूप, प्रवृत्ति, आचार-विचार, गुण दोषत्याग, व्रतग्रहण, व्यसनत्याग, दैनिक कर्तव्य सामायिक का स्वरूप, क्षुल्लक-ऐलक आर्यिकाओं के स्वरूप एवं कर्तव्यों की सांगोपांग समीचीन समीक्षा सन्निविष्ट है । यह कृति श्रावकों की आचरण संहिता है । श्रावक धर्म प्रदीप का अनुशीलन प्रथमोध्याय - इस अध्याय के 15 पद्यों में पाक्षिक श्रावक का स्वरूप और आचार सरल रीति से समझाया है। • लोक कल्याणकारी अहिंसा जीवनमात्र के हृदय में स्थापित हो, निर्लिप्त साधक ही पथप्रशस्त करे, सच्चे गुरु की मानवता का कल्याण करें, धर्म के आदर्श मानव ही "देव" है । उनके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र ही प्रमाणिक और पठनीय है - ऐसे भाव जिसके हृदय में है वही पाक्षिक श्रावक है - पाक्षिक का मूल अर्थ है - जिसे धर्म का पक्ष हो । यद्यपि वह गृहस्थ कार्य एवं भोगोपभोग से विरक्त नहीं होता किन्तु प्राणियों के प्रति संवेदनशील और धर्म की प्रभावना के लिए सदैव उत्सुक और तत्पर रहता है । वह धर्म के प्रति समर्पित होकर ही रत्नत्रय के प्रतीक तीन सूत वाले यज्ञोपवीत को धारण करता है । पाक्षिकं श्रावक देवोपासना, शास्त्राध्ययन, गुरुसेवा, स्वोपकार एवं परोपकार के कार्यों को भी समानरूप से करता है । वह प्रकृति से शान्त एवं गम्भीर होकर भी दुष्टों को उचित मार्ग पर लाने और सज्जनों की रक्षा करने का सक्रिय प्रयास करता है । उसे सुख-दुःख मैत्रीभाव, परोपकार, तीर्थवन्दन, शान्तिस्थापन, पीड़ित मानवता की सेवा आदि कार्यों के प्रति चिन्तनशील होने के साथ ही अपनी पत्नी को मधुरतापूर्वक उत्तमशिक्षा देने, गृहस्थ सम्बन्धी विचार विमर्श करने का भी निर्देश दिया गया है । पाक्षिक श्रावक को व्यर्थ के वाद-विवाद और अभिमानियों के सम्पर्क से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है। द्वितीयोध्याय - इस अध्याय में जैन गृहस्थ के साधना मार्ग में क्रमिक उत्कर्ष के लिए नैष्ठिक श्रावकों का वर्णन है - प्रथम प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक नैष्ठिक श्रावक है और समाधि द्वारा मरण साधने वाले श्रावक साधक कहलाते हैं । नैष्ठिक श्रावकों को अनिवार्य रूप से उपयोगी सम्यग्दर्शन की समग्र मीमांसा प्रस्तुत की गई है- यथार्थ वस्तु की तत्त्वश्रद्धा सम्यग्दर्शन है। वह यथार्थ वस्त की श्रद्धा यर्थाथ जान चारित्र को विकसित करने का साधन है । इनके द्वारा मानव सिद्धि प्राप्त कर लेता है । सम्यग्दर्शन के 25 दोषों का क्रमबद्ध विस्तृत विवेचन भी किया गया है - 25 दोष इस प्रकार हैं - 8 दोष + 18 मदरी + 6 आयतन + 3 मूढ़ता = 25 दोष उक्त सभी श्रावक को त्याज्य होते हैं ये सभी दोष मानव को पथभ्रष्ट करके स्वाभिमानी बनाते हैं अतः इनसे धर्मात्मा पुरुषों को दूर रहना चाहिये सम्यग्दृष्टि सप्तभयों से उन्मुक्त होता है जबकि
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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