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और सत्सङ्ग के महत्त्व पर प्रकाश डाला है । लौकिककार्यों को विपत्ति बहुल कहा गया है तथा इस कार्यकाल में भी मुनिजीवन की निर्विघ्न सफलता प्रतिपादित की है। ग्रन्थकार ने चिन्ता को व्यापक, अनन्त एवं शरीरान्त करने वाली व्याधि माना है । इसी परिप्रेक्ष्य में विभिन्न पक्षों मूल्याङ्कन करने के अवसर का निदर्शन है - प्रभोः परीक्षा गुणदोषभेदैः स्मृते परीक्षा सदसद्विचारे पसाधो । परीक्षादु सर्गकाले, नारी परीक्षा विपत्प्रकीर्णे ॥
माता-पिता तथा प्रजा को संस्कारच्युत करने वाले शासक को भी "पापी" कहा गया है । पाश्चात्य सभ्यता की तीव्र आलोचना की गयी है और इस सभ्यता के अन्धे अनुयायियों की भर्त्सना की है । देव, शास्त्र गुरू में श्रद्धा करने वालों की प्रशंसा की है, क्योंकि ऐसा करने से समस्त दु:ख नष्ट हो जाते हैं । इसमें गृहस्थी सम्बन्धी पापों को नष्ट करने के लिए जिन प्रतिमा पूजन को अनिवार्य माना गया है । इस अध्याय में स्वपरभेद विज्ञान को आत्मौन्नति का प्रतीक एवं पुण्य को सुख का साधन माना गया है। इस संसार के क्रियाकलापों एवं अशुभकर्मों पर आश्चर्य व्यक्त किया है । इसके साथ ही मानवमात्र को आत्मा और शरीर का भिन्नता का ज्ञान (रहस्य) कराने का प्रयत्न किया गया है। यह शरीर आत्मा का निवास स्थान है जबकि आत्मा का स्वरूप अनुपम है । वह शरीर से सर्वथा भिन्न हैइस रहस्य का ज्ञाता प्राणी की मोक्ष का पात्र होता हैं । ग्रन्थकार ने अज्ञान से दी गई समस्त क्रियाओं को असफल माना है । इस अध्याय के अन्त में नीतिपूर्ण, सारगर्भित पद्यों के माध्यम से सद्गुणों की समीक्षा की गयी है।
चतुर्थ अध्याय - "हेयोपादेय" (स्वरूपवर्णन) शीर्षक युक्त प्रस्तुत अध्याय में 115 श्लोक हैं । इसमें साधु, विद्वान दानी, पतिव्रता, न्यायप्रिय शासक, महापुरुष के लोकोत्तर प्रभाव का वर्णन है और मानव के विभिन्न गुणों की सर्वोच्चता प्रतिपादित की गई हैक्षमासमं नास्ति तपोऽपरं च दया समो नास्त्यपरो हि धर्मः । चिन्ता समो नास्त्यपरश्च रोगो रसोऽपरो न स्वरसस्य तुल्यः ॥
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प्राचीन परम्परा के प्रतिकूल विचार देवसत्ता के प्रति अभिव्यक्त हुए हैं तथा सर्वत्र विद्यमान देवशक्ति अर्हन्तदेव में सन्निविष्ट कर दी है । विषयवासना से ग्रसित मनुष्य को पशुवत माना है । तथा अध्यात्म विद्या के प्रभाव और महत्त्व का व्यापक विश्लेषण किया है कि चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, इन्द्र, नागेन्द्र राजा, भोगभूमि कामधेनु, पृथ्वी आदि अध्यात्म के वशीभूत एवं सेवक हैं, अतः अध्यात्म शक्ति की उपासना करना चाहिये। आत्मा का स्वरूप अमूर्त है किन्तु विविध विकारों के आ जाने पर उसे व्यवहारनय से मूर्त कहा जाता है तथा कर्मबन्धन से मुक्त किये जाने पर एवं विकारत्याग करने पर यह आत्मा अपने शुद्ध अमूर्त रूप को प्राप्त करता है । संसारचक्र की गतिशीलता एवं गुरुशिष्य सम्बन्धों पर भी चर्चा की गई है ।
जैनधर्म सुख-शान्ति, विभूति, बन्धुत्व, आत्मकल्याण का आश्रय है, इसलिए निरन्तर इसकी उन्नति के लिए संलग्न रहना चाहिये । सभी प्राणियों के प्रति बन्धुत्व का व्यवहार करना परम् कर्तव्य है। मनुष्य को अपनी विचारधारा चिंतनपरक बनानी चाहिये - क्योंकि यह जीव सत् एवं असत् कर्मों का कर्ता होता है । कर्म परिवर्तन का सूत्रधार है । इसके कारण क्षणभर में ही धनी, दरिद्र राजा - रङ्क एवं योग्य भी अयोग्य बन जाते हैं। इस प्रकार कर्म मानव को भाग्य का निर्णायक है । सत्संग के महत्त्व एवं प्रभाव का परिकलन भी