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आदि त्याग देने और आत्मशुद्धि करने की आवश्यकता निरूपित की है । अकिंचनधर्म की सराहना की गई है और भेदज्ञानियों के चिन्तन का विश्लेषण किया है। भेदज्ञानी अपने कुटुम्बियों को चिंता, मोह, कषाय, विकार में सहायक मानते हैं और उनका परित्याग कर देते हैं । कर्ता, कर्म, क्रिया का सद्भाव व्याप्य-व्यापक भाव पर भी निर्भर है।
इसके साथ ही महापुरुषों की विवेकपूर्ण विचारधारा और आत्मा के अनन्त, निर्मल स्वभाव की प्राप्ति के लिए आत्मचिन्तन की अनिवार्यता भी प्रतिपादित की गई है । कुन्थुसागर जी आत्मा और ज्ञान को एक मानते हैं किन्तु इन दोनों को प्रवचन करते समय गुणी-गुणी के भेद से अनेक हिस्सों में विभाजन करने को उपयुक्त कहते हैं । बाह्य परिग्रह और अन्तरङ्ग परिग्रह की सत्ता का व्यापक वर्णन मिलता है - बाह्यपरिग्रह का त्याग करना सरल है किन्तु अन्तरङ्ग परिग्रह त्यागना कठिन (दुष्कर) होता है। किन्तु अन्तरङ्ग परिग्रह त्याग देने पर आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है । स्वधर्म और विधर्म की व्याख्या की गई है - स्वधर्म सुखदायक एवं आत्मशुद्धि का प्रतीक होता है किन्तु विधर्म तो दुःखमय और विकारमय है ।
इसके पश्चात् जीवनदर्शन की सर्वोच्च पराकाष्ठा की विवेचना हुई है - कि इस जीव ने संसार में अन्तकाल से परिभ्रमण करते हुए लौकिक ऐश्वर्य अनेक बार प्राप्त किया किन्तु आत्मा का शुद्ध स्वरूप नहीं प्राप्त कर सका -
न किन्तु लब्ध स्वपधं पवित्रं ततः प्रयत्नाद्धि तदैव लभ्यम् ।
इस आत्मतत्त्व को पाने का उपाय भी निदर्शित किया है । तदनन्तर मानव चित्त की चंचलता का विश्लेषण किया है और उसे एकाग्र करने के साधन भी वर्णित किये हैं । सामाजिक तत्वों की यथार्थता के मर्मज्ञ महापुरुषों के गुणों एवं वीतराग की तपस्या का परिचय भी दिया गया है । आत्म प्रधान विद्या को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसी की शिक्षा का प्रसार करने को श्रेयस्कर कहा है । इस अध्याय के अन्त में मनीषियों के एकान्तप्रिय जीवनादर्श तथा साधु स्वभाव का सम्यक् चित्रण किया गया है तथा सच्चे साधकों द्वारा प्रत्येक स्थिति (निन्दा या स्तुति) में समता धारण करने का भी निदर्शन किया है ।
तृतीय अध्याय - इस अध्याय का शीर्षक "वस्तुस्वरूप" है । इसमें 98 पद्य हैं। प्रस्तुत अध्याय में बहुमुखी दृष्टिकोण पूर्वक नीतियों की सार्थकता प्रतिबिम्बित हुई है। राजा-चोर, सज्जन-दर्जन में अन्तर स्पष्ट किया है तथा उनके लक्षणों पर भी विचार किया है - कर्म के आधार पर मनुष्यों के तीन भेद किये गये हैं - उत्तम, मध्यम अधम। सम्यग्दृष्टि को स्वपरभेद विज्ञान का मर्मज्ञ निरूपित किया है - वह परपदार्थों के प्रति निर्लिप्त आत्मचिन्तनरत एवं कर्मबन्धन से उन्मुक्त होता है । मानव का स्वभाव और गति ऐसी है कि वह (आत्मा) जिसका चिन्तवन करता है, तब वह तद्रूप हो जाता है । इसलिए हमें साधुओं की जीवनशैली का अनुकरण करना चाहिये । क्योंकि परपदार्थों से उत्पन्न दुःख “अनिर्वचनीय" होता है । अपरिग्रही मुनियों के समीप मुक्ति के अस्तित्व को स्वीकार किया है और कर्म की प्रबल स्थिति का विवेचन भी किया गया है । आचार्य कुन्थुसागर जी ने राजतंत्र का समर्थन करते हुए राष्ट्र की समृद्धि एकता के लिए शक्तिमान, न्यायप्रिय, कार्यकुशल प्रशासक (सम्राट) का होना आवश्यक मानते हैं । मनुष्य को (लक्ष्य तक या) कर्तव्यच्युत करने वाले गुरु, देव, धर्म, बन्धु, मित्र, राजा देश, स्त्री आदि का परित्याग करना हितकारी होता है।
इसके उपरान्त काम सन्तप्त मानव को अवगुण, अपयश का पात्र निरूपित किया है