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मेरी विनम्र सम्मति में उपर्युक्त विचारकों की नैतिक विचारणा को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह उन विचारकों की नैतिक विचारणा नहीं है, वरन् उनके आत्मवाद या अन्य दार्शनिक मान्यताओं के आधार पर निकाला हुआ नैतिक निष्कर्ष है, जो एक विरोधी पक्ष के द्वारा प्रस्तुत किया गया है 1
जैनागमों में सूत्रकृतांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति ( भगवती सूत्र) एवं उत्तराध्ययन आदि में भी कुछ ऐसे स्थल हैं जिनके आधार पर तत्कालीन आत्मवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है
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वैदिक साहित्य में प्राचीनतम उपनिषद् छान्दोग्य और बृहदारण्यक' हैं, उनमें भी तत्कालीन आत्मवाद के सम्बन्ध में कुछ जानकारी उपलब्ध होती है । कठोपनिषद् एवं गीता में इन विभिन्न आत्मवादी धारणाओं का प्रभाव यत्र-तत्र यथेष्ट रूप से देखने को मिल सकता है
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लेख के विस्तार भय से यहां इन सभी ग्रन्थों के विभिन्न सकेंतों के आधार पर उनसे प्रतिफलित होने वाले आत्मवादों की विचारणा सम्भव नहीं है, अतः हम यहां कुछ आत्मवादों का वर्गीकृत रूप में मात्र संक्षिप्त अध्ययन ही करेगे। इनका विस्तृत और पूर्ण अध्ययन तो स्वतंत्र गवेषणा का विषय है ।
वर्गीकरण की दृष्टि से हमारे अध्ययन में निम्न वर्गीकरण सहायक हो सकता है।
1. नित्य या शाश्वत आत्मवाद
2. अनित्य आत्मवाद, उच्छेद आत्मवाद, देहात्मवाद
3. कूटस्थ आत्मवाद, अक्रिय आत्मवाद, नियतिवाद
4. परिणामी आत्मवाद, आत्म कर्तव्यवाद, पुरुषार्थवाद
5. सूक्ष्म आत्मवाद
6. विभु आत्मवाद
7. अनात्म वाद
8. सर्व आत्मवाद या ब्रह्मवाद
प्रस्तुत निबन्ध में उपर्युक्त सभी आत्मवादों का विवेचन संभव नहीं है, दूसरे अात्मवाद और सर्व आत्मवाद के सिद्धान्त क्रमशः बौद्ध और वेदान्त परम्परा में विकसित हुए हैं, जो काफी विस्तृत हैं साथ ही लोक प्रसिद्ध हैं । अतः उनका विवेचन प्रस्तुत - निबन्ध में नहीं किया गया है। परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त स्वतंत्र रूप से किसका था, यह ज्ञात नहीं हो सका । अतः उसका भी विवेचन इस निबंध में नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रयास में इन विभिन्न आत्मवादों के वर्गीकरण
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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