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में मुख्यतः एक स्थूल दृष्टि रखी गई है और इसी हेतु कूटस्थ आत्मवाद, नियतिवाद या परिणामी आत्मवाद और पुरुषार्थवाद को उनमें परस्पर अन्तर होते हुए भी एक ही वर्ग में रखा गया है। वैसे पुरुषार्थवाद महावीर के आत्मवाद का मुख्य अंग है फिर भी महावीर का आत्म-दर्शन समन्वयात्मक है अतः उनके आत्म-दर्शन को एकान्त रूप से उस वर्ग में नहीं रखा जा सकता है ।
अनित्यक आत्मवाद
महावीर के समकालीन विचारकों में इस अनित्यात्मवाद का प्रतिनिधित्व अजितकेश कम्बल करते हैं । इस धारणा के अनुसार आत्मा या चैतन्य इस शरीर के साथ उत्पन्न होता है और इसके नष्ट हो जाने के साथ ही नष्ट हो जाता है। उनके दर्शन एवं नैतिक सिद्धान्तों को बौद्ध आगम में उस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।
दान, यज्ञ, हवन, व्यर्थ हैं, सुकृत- दुष्कृत कर्मों का फल-विपाक नहीं । यह लोक-परलोक नहीं। माता-पिता नहीं, देवता नहीं... आदमी चार महाभूतों का बना है जब मरता है तब (शरीर की ) पृथ्वी पृथ्वी में, पानी पानी में, आग आग में और वायु वायु में मिल जाती है ..... दान यह मूर्खों का उपदेश है.... मूर्ख हो चाहे पण्डित शरीर छोड़ने पर उच्छिन्न हो जाते हैं .
बाह्य रूप से देखने पर अजित की यह धारणा स्वार्थ सुखवाद की नैतिक धारणा के समान प्रतीत होती है और उसका दर्शन तथा आत्मवाद भौतिकवादी परिलक्षित होता है । लेकिन पुनः यहाँ यह शंका उपस्थित होती है कि यदि अजितकेश कम्बल नैतिक धारणा में सुखवादी और उनका वर्णन भौतिकवादी था, तो फिर वह स्वयं साधना मार्ग और देख दण्डन के पथ का अनुगामी क्यों था, किस हेतु उसने श्रमणों एवं उपासकों का संघ बनाया था । यदि उसकी नैतिकता योगवादी थी तो उसे स्वयं संन्यास - मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृह-त्यागी को स्थान होना था ।
सम्भवतः वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जो था । वह लोक, परलोक, देवता आत्मा आदि किसी भी तत्व को नित्य नहीं मानता था । उसका यह कहना यह लोक नहीं परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं. केवल इसी अर्थ का द्योतक हैं कि सभी की शाश्वत् सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं । वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर कि उसकी नैतिक धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं ।
जैन तत्त्वदर्शन
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