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________________ वस्तुतः जो इसे जानना चाहता है उसके सामने यह आत्मा स्वयं ही अपने स्वरूप को उद्घाटित कर देता है।” (मुण्डकोपनिषद् 3 / 2 / 3 ) यही कथन हमें जैन आगम आचारांग में भी मिलता है । उपनिषदों में ऐसे अनेकों वचन उपलब्ध हैं जो श्रमण परम्परा की अवधारणा से तादात्म्य रखते हैं । यह सत्य है कि उपनिषदों पर वैदिक परम्परा का भी प्रभाव देखा जाता है, क्योंकि मूलतः औपनिषदिक धारा वैदिक धारा पर श्रमण धारा के समन्वय का ही परिणाम है । श्वेताश्वतर उपनिषद् (4/5/6) में भी सांख्य दर्शन का विशेष रूप से त्रिगुणात्मक प्रकृति का एवं दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा आसक्त एवं अनासक्त जीवों का जो चित्रण है वह स्पष्ट रूप से सांख्य दर्शन और औपनिषदिक धारा की श्रमण परम्परा के साथ सहधर्मिता को ही सूचित करता है । इसी क्रम में बृहदारण्यक उपनिषद् (4/4/12) का यह कथन कि, “पुरूष के द्वारा आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाने पर उसे किसी कामना या इच्छा से दुःखी नहीं होना पड़ता है ।" इसी उपनिषद् (4/4/22) में आगे यह कथन कि, “यह आत्मा महान्, अजन्मा, विज्ञानमय, हृदयकाशशायी है और इसे जानने के लिये ही मुनिजन पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकेषणा का परित्याग कर भिक्षाचर्या से जीवन जीते हैं । इस आत्मा की महिमा नित्य है, वह कर्म के द्वारा न तो वृद्धि को प्राप्त होती है न हास को । इस आत्मा को जानकर व्यक्ति कर्मों से लिप्त नहीं होता । इस आत्मा का ज्ञान रखने वाला शांत चित्त तपस्वी उपरत, सहनशील और समाहित चित्त वाला आत्मा, आत्मा में ही आत्मा का दर्शन कर सभी को अपनी आत्मा के समान देखता है। उससे कोई पाप नहीं होता । वह पापशून्य, मलरहित, संशयहीन ब्राह्मण ब्रह्मलोक 1 प्राप्त हो जाता है (बृहदारण्यक 4/ 4 / 23 ) । यह कथन भी औपनिषदिक धारा श्रमण धारा के नैकट्य को ही सूचित करता है । वस्तुतः बृहारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद तथा याज्ञवल्क्य का अपनी पत्नियों मैत्रेयी और कात्यायनी का संवाद औपनिषदिक ऋषियों के श्रमणधारा से प्रभावित होने की घटना को ही अभिव्यक्त करते हैं (बृहदारण्यकोपनिषद् 4/5 / 1 से 7 तक) । यहां हमने प्रसंगवशात केवल प्राचीन माने जाने वाले कुछ उपनिषदों के ही संकेत प्रस्तुत किये हैं । परवर्ती उपनिषदों में तो श्रमणधारा के प्रभावित यह आध्यात्मिक चिंतन अधिक विस्तार और स्पष्टता से उपलब्ध होता है । यह एक सुनिश्चित सत्य है कि वैदिक धारा ब्राह्मणों और आरण्यकों से गुजरते हुए औपनिषदिक काल तक श्रमणधारा के अध्यात्म से प्रभावित हो चुकी थी। प्राचीन औपनिषदिक चिन्तन वैदिक और श्रमणधारा के संगम स्थल हैं । यह श्रमणधारा एक ओर वैदिकधारा से समन्वित होकर कालक्रम में सनातन हिन्दू धर्म के रूप में विकसित होती है तो दूसरी ओर वैदिक धारा से अपने को अप्रभावि रखते हुए मूल श्रमणधारा जैन, बौद्ध और आजीवक परम्परा के रूप में विभक्त होकर विकसित होती है। फिर भी जैन, बौद्ध और आजीवक सम्प्रदायों के नामकरण एवं जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 604
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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