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________________ प्राप्त होता है। कर्मकाण्ड की हेयता को भी उजागर किया गया है। इसके साथ-साथ बृहदारण्यकोपनिषद् (6/2/8) में जनक के द्वारा याज्ञवल्क्य को स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि यह अध्यात्म विद्या पहले किसी भी ब्राह्मण के पास नहीं रही है, तुम्हारी नम्रतायुक्त प्रार्थना को देखकर ही मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ। इस परिचर्चा में न केवल भौतिक उपलब्धियों को हीन बताया गया है, अपितु यज्ञ रूपी कर्मकाण्ड को प्राकृतिक शक्तियों के साथ समन्वय करते हुए उनका किसी रूप में आध्यात्मीकरण भी किया गया है। इस उपनिषद् में (6/2/16 पृ. 345) स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वे लोक जो यज्ञ, दान, तपस्या के द्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं वे धूम मार्ग को प्राप्त होते हैं। ज्ञातव्य है कि यहाँ धूम मार्ग को जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाने वाला कहा गया है। यद्यपि उपनिषदों में अनेक स्थलों पर कर्मकाण्ड संबंधी उल्लेख मिल जाते हैं किन्तु औपनिषदिक ऋषि उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते थे। दूसरा महत्वपूर्ण संकेत उपनिषदों में यह मिलता है कि उनमें यज्ञीय कर्मकाण्ड का आध्यात्मीकरण किया गया है। आत्मतत्त्व की सर्वोपरिता औपनिषदिक चिन्तन के आध्यात्मीक होने का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण हैं (ऐतरेयोपनिषद् 1/1/1/)। यज्ञ के आध्यात्मीकरण के कुछ उल्लेख यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं: बृहदारण्यकोपनिषद् (6/2/12) में कहा गया है कि पुरूण ही अग्नि है। उसका खुला हुआ मुख ही समिधाएं है, प्राण ही धुंआ है, वाणी ही ज्वाला है, चक्षु ही अंगारें हैं, श्रोत्र ही चिंगारी है। इस अग्नि में ही समस्त देवता अन्न का होम करते हैं। यहा यह भी ज्ञातव्य है कि यद्यपि बृहदारण्यक को उपनिषद् की कोटि में गिना जाता है, किन्तु मूल में यह आरण्यक वर्ग का ही है। आरण्यक उस स्थिति के सूचक है जब वैदिक कर्मकाण्ड आध्यात्मिक स्वरूप ग्रहण करने की ओर प्रथमतः प्रस्थित हुआ था। उपनिषदों के आध्यात्मिक पक्ष को समझने के लिए मुण्डकोपनिषद् के प्रथम खण्ड के दस और द्वितीय खण्ड के आठ श्लोक विशेष रूप से दृष्टव्य हैं। मुण्डकोपनिषद् स्पष्ट रूप से औपनिषदिक धारा के श्रमण धारा होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसी प्रकार कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली के प्रारम्भ में जो श्रेय और प्रेय मार्ग का विवेचन कर जो श्रेय मार्ग की प्रमुखता बताई गई है वह भी औपनिषदिक धारा के श्रमण धारा के निकट होने का प्रमाण है। __ मुण्डकोपनिषद् का यह कथन कि (मुण्डकोपनिषद् 3/1/5) इस शरीर के भीतर जो आत्मतत्व उपस्थित है उसे सत्य, तप, सम्यक् ज्ञान और ब्रह्मचर्य के द्वारा दोषों से क्षीण यतीगण देख लेते हैं।" यह कथन जैन दर्शन के सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक्, चारित्र और सम्यक् तप रूप मोक्षमार्ग को ही प्रतिध्वनित करता है। इसी प्रकार “यह आत्मा वाणी, मेधा (बुद्धि) अथवा शास्त्र-श्रवण से प्राप्त नहीं होती। बौद्ध धर्मदर्शन 603
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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