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________________ हैं। औपनिषदिक धारा के साथ-साथ सांख्य योग आदि परम्पराएं भी मूलतः श्रमण ही हैं और इस दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्ध हो जाता है कि श्रमण परम्परा भी उतनी ही प्राचीन है जितनी वैदिक परम्परा। भारतीय श्रमण परम्परा के विभिन्न घटक भारतीय श्रमण परम्परा या आर्हत् परम्परा एक अतिव्यापक परम्परा है। औपनिषदिक, जैन और बौद्ध साहित्य के प्राचीन अंशों में इसके अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। इस श्रमण परम्परा का प्राचीनतम संकेत ऋग्वेद (10/136/2) में वारतरशना मुनि के उल्लेख के रूप में भी उपलब्ध है। जिसका सामान्य अर्थ नग्न मुनि या वायु का भक्षण कर जीवित रहने वाले मुनि ऐसा होता है। ऋग्वेद में जीर्ण और मलयुक्त अर्थात् मैले वस्त्र धारण करने वाले पिशांगवसना मुनियों का भी उल्लेख मिलता है। यह सब उल्लेख इस तथ्य के प्रमाण हैं कि ऋग्वैदिक काल में श्रमण परम्परा का अस्तित्व था। पुनः ऋग्वेद, अथर्ववेद आदि में जो व्रात्यों का उल्लेख उपलब्ध होता है वह भी श्रमण धारा की प्राचीनता का सूचक है। इसका एक प्रमाण यह है कि आरण्यकों में श्रमणों और वातरशना मुनियों को एक ही बताया गया है। इसी प्रकार उपनिषदों (बृहादा; 4/3/22) में तापसों और श्रमणों को एक बताया गया है। जैन परम्परा में भी श्रमणों के पांच प्रकारों के चर्चा करते हुए उनमें निर्ग्रन्थ, आजीवक शाक्यपुत्रीयश्रमण, गैरिक और तापस ऐसे पांच विभाग मिलते हैं। यदि हम औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धारा के प्राचीन साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो हमें इस प्राचीन श्रमण धारा की व्यापकता का ज्ञान हो जाता है। इस संबंध में अति विशद चर्चा तो यहाँ संभव नहीं है किन्तु यदि हम बृहदारण्यकोपनिषद् (6/5/3-4 पृ.356 तथा 4/6/1-3 पृ.327) के ब्रह्मवेत्ता ऋषियों की वंशावली का बौद्ध परम्परा की थेरगाथा का तथा जैन परम्परा के ग्रन्थ ऋषिभाषित के ऋषियों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करे तो हमें भारतीय श्रमण धारा की व्यापकता का पता लग सकता है। क्योंकि इन तीनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर इनमें अनेकों नाम समान रूप से पाये जाते हैं जो इस तथ्य के सूचक हैं कि भारतीय श्रमणधारा का मूल स्रोत एक ही है। औपनिषदिक धारा को श्रमण धारा के साथ संयोजित करने के पीछे मुख्य रूप से निम्न आधार हैं: औपनिषदिक धारा मूलतः कर्मकाण्ड की विरोधी है। उपनिषदों में न केवल वैदिक कर्मकाण्ड की उपेक्षा की गई है अपितु मुण्डकोपनिषद (1/2/7) में यह कहकर कि यज्ञ रूपी ये नौकाएं अदृढ़ है, सछिद्र है, ये संसार सागर में डूबने वाली है, न केवल वैदिक कर्मकाण्ड की आलोचना की है अपितु यह कहकर कि जो इसे श्रेय मानकर इसका अभिनन्दन करता है, वह मूढ़ पुरूष जरा और मृत्यु को 602 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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