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________________ तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि ऋग्वेद के रचनाकाल में दोनों ही परम्पराएं अपना अस्तित्व रखती थीं। ऋग्वेद में न केवल अरहन्त एवं अर्हत् शब्द मिलते हैं, अपितु आर्हत् परम्परा का ओर उसके आद्य संस्थापक ऋषभ के भी उल्लेख हैं। ऋग्वेद में 112 ऋचाओं में ऋषभ शब्द का उल्लेख है। यद्यपि सर्व स्थलों पर ऋषभ शब्द तीर्थंकर ऋषभ का वाचक है, यह कहना तो कठिन है किन्तु उन ऋचाओं के आधार पर यह मानना भी संभव नहीं है कि वे सभी ऋचाएं सामान्यतः वृषभ (बैल) की वाचक हैं। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि-औपनिषदिक सूक्तों और वैदिक ऋचाओं में अनेक ऐसी हैं जो प्रतीकात्मक हैं। क्योंकि उन्हें प्रतीकात्मक माने बिना उनका कोई भी वास्तविक अर्थ नहीं निकल सकता है। उदाहरण के रूप में कठोपनिषद् का यह कथन लें,- “अजां एकां लोहितशुक्लकृष्णां बवि प्रजासृजामानास्वरूपा”- सामान्य शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इसका अर्थ होगा कि लाल, काले और सफेद रंग की एक बकरी अपने ही समान सन्तानों को जन्म देती है, किन्तु दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ है कि सत्व रजस् और तमस्गुण से युक्त प्रकृति ही अपने ही समान सृष्टि को जन्म देती है। वस्तुतः यही स्थिति ऋग्वेद की ऋषभ वाची ऋचाओं की है। अतः उनका प्रतीकात्मक अर्थ किस प्रकार जैन या श्रमण परम्परा से सम्बद्ध प्रतीत होता है इसकी विस्तृत चर्चा हमने ऋग्वेद में ऋषभ वाची ऋचाएं नामक एक लेख में की है। विस्तार भय से यहां उस चर्चा में उतरना तो संभव नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि ऋग्वेद के काल में इस देश में आर्हत् और बाहूत दोनों ही परम्पराएं जीवित थीं अर्थात् वैदिक और श्रमण धाराओं का सह-अस्तित्त्व था। __ जहां तक पुरातात्त्विक साक्ष्यों का प्रश्न है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जो श्रमण या आर्हत् परम्परा के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। हड़प्पा के उत्खनन में हमें ध्यानस्थ योगियों की अनेक सीलें उपलब्ध होती है, जिनमें खड्गासन या पद्मासन की मुद्रा में योगी ध्यान में बैठे दिखाये गये हैं। यद्यपि इन पुरातात्त्विक साक्ष्यों में अनेक अभिलेख भी हैं, जो अभी तक नहीं पढ़े गये हैं। किन्तु इनसे इतना तो सिद्ध होता है कि उस काल में एक सुसंस्कृत सभ्यता अस्तित्व में थी और उसका बहुत कुछ संबंध प्राचीन आर्हत् धारा की योग, शैव आदि श्रमण धारा की परम्पराओं से रहा है। शैव परम्परा अवैदिक परम्परा है इसे अनेक विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। वस्तुतः सांख्य योग, शैव, आजीविक बौद्ध और जैन ये सभी परम्पराएं मूल में प्राचीन आर्हत् श्रमण धाराओं के ही विविध रूप हैं। इन सब साक्ष्यों को चाहे हम स्पष्ट रूप से निर्ग्रन्थ या जैन उद्घोषित न भी कर सके तो भी ये सभी साक्ष्य आर्हत् श्रमण धारा के ही सूचक बौद्ध धर्मदर्शन 601
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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