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________________ I विकास के पूर्व भी यह श्रमणधारा सामान्य रूप से प्रवाहित होती रही है । यही कारण है कि इन धाराओं के अनेक पूर्व पुरूष न केवल जैन, बौद्ध और आजीवक परम्परा में समान रूप में स्वीकृत हुए, किन्तु औपनिषदिक चिन्तन और उससे विकसित परवर्ती हिन्दू धर्म की विविध शाखाओं में भी समान रूप से मान्य किए गये हैं यदि हम उपनिषदों में दिये गये ऋषिवंश, जैन ग्रन्थ ऋषिभाषित उल्लेखित ऋषिगणों तथा बौद्ध ग्रन्थ थेरगाथा में उल्लेखित थेरों को तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करें तो हमें ऐसा लगता है कि औपनिषदिक, बौद्ध, जैन और आजीवक धाराएं अपनी पूर्व अवस्था में संकुचितता के घेरे से पूर्णतया मुक्त थी और एक समन्वित मूलस्रोत का ही संकेत करती हैं 1 1 इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त सूचियों के अवलोकन से एक बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि इन तीनों ही सूचियों में कुछ नाम समान रूप से पाये जाते हैं। विशेष रूप से औपनिषदिक सूचियों के कुछ नाम ऋषिभाषित की सूची में और कुछ नाम थेरगाथ की सूची में पाये जाते हैं । मात्र यही नहीं ऋषिभाषित की सूची के कुछ नाम थेरगाथा की सूची के साथ - साथ सुत्तनिपात आदि बौद्ध पिटक साहित्य के ग्रन्थों में भी पाये जाते हैं । सामान्यतया यहां यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि एक नाम के कई व्यक्ति विभिन्न कालों में भी हो सकते हैं और एक काल में भी हो सकते हैं? किन्तु जब हम इन सूचियों में प्रस्तुत कुछ व्यक्तित्वों का गंभीरता से अध्ययन करते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि इन सूचियों में जो नाम समान रूप से मिलते हैं वे भिन्न व्यक्तियों के सूचक नहीं हैं, अपितु इससे भिन्न यही सिद्ध होता है कि वे एक 'व्यक्ति के नाम हैं। उदाहरण के रूप में- याज्ञवल्क्य का नाम शतपथ ब्राह्मण, सांखायन आरण्यक, बृहदारण्यकोपनिषद्, महाभारत के सभापर्व, वनपर्व एवं सांख्यपर्व में मिलता है तो दूसरी ओर वह हमें ऋषिभाषित की सूची में भी मिलता है । जब हम ऋषिभाषित प्रस्तुत याज्ञवल्क्य के उपदेश की बृहदारण्यकोपनिषद् में उनके उपदेश से तुलना करते हैं तो स्पष्ट रूप से लगता है कि वे दोनों ही स्थलों पर वित्तैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा के त्याग की बात करते हैं। दोनों परम्पराओं में उनके उपदेश की इस समानता के आधार पर उन्हें दो भिन्न व्यक्ति नहीं माना जाता सकता। इसी प्रकार जब हम थेरगाथा के गोशाल थेर, ऋषिभाषित के मंखलीपुत्र ( गोशालक ) तथा महाभारत के मंकी (मंखी) ऋषि के उपदेशों की तुलना करते हैं तो तीनों ही स्थानों पर उनकी प्रमुख मान्यता नियतिवाद के सम्पोषक तत्व मिल जाते हैं । अतः हम इन तीनों को अलग-अलग व्यक्ति नहीं मान सकते हैं। इस प्रकार जब हम ऋषिभाषित के वर्धमान और थेरगाथा के वर्धमान थेर की तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि थेरगाथा की अट्ठकथा में वर्धमान थेर को वैशाली गणराज्य के लिच्छवी वंश का राजकुमार बताया गया है, अतः ये वर्धमान महावीर ही हैं । धर्मदर्शन 605
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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