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विद्याचरी, ऐसे दो प्रकार के श्रमणों के उल्लेख प्राप्त होते हैं । यह माना जाता है कि ये मुनि अपनी विशिष्ट साधना द्वारा ऐसी अलौकिक शक्ति प्राप्त कर लेते थे जिसकी सहायता से वे आकाश में गमन करने में समर्थ होते थे I
यह माना जाता है कि आर्य वज्रस्वामी ( ईसा की प्रथम शती) ने दुर्भिक्षकाल में पट्टविद्या की सहायता से सम्पूर्ण जैन संघ को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया था। वज्रस्वामी द्वारा किया गया विद्या का यह प्रयोग परवर्ती आचार्यों और साधुओं के लिए एक उदाहरण बन गया । वज्रस्वामी के सन्दर्भ में आवश्यकनिर्युकित में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उन्होंने अनेक विद्याओं का उद्धार किया था । लगभग दूसरी शताब्दी के मथुरा के एक शिल्पांकन में आकाशमार्ग से गमन करते हुए एक जैन श्रमण को प्रदर्शित भी किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से भी जैनों में अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति हेतु तांत्रिक साधना के प्रति निष्ठा का विकास हो गया था । वस्तुतः जैन धर्मसंघ में ईसा की चौथी - पाँचवी शताब्दी से चैत्यवास का आरम्भ हुआ उसी के परिणामस्वरूप तन्त्र-मन्त्र की साधना को जैन संघ में स्वीकृति भी मिली।
जैन परम्परा में आर्य खपुट, ( प्रथम शती), आर्य रोहण (द्वितीय शती) आचार्य नागार्जुन (चतुर्थ शती) यशोभद्रसूरि, मानदेवसूरि, सिद्धसेनदिवाकर (चतुर्थ शती), मल्लवादी (पंचम शती) मानतुङ्गसूरि (सातवीं शती), हरिभद्रसूरि (आठवीं शती), बप्पभट्टिसूरि (नवीं शती), सिद्धर्षि (नवीं शती), सूराचार्य ( ग्यारहवीं शती), जिनेश्वरसूरि (ग्यारहवीं शतीं), अभयदेवसूरि (ग्यारहवीं शती), वीराचार्य ( ग्यारहवीं शती) जिनदत्तसूरि (बारहवीं शती), वादिदेवसूरि (बारहवीं शती), हेमचन्द्र (बारहवीं शती), आचार्य मलयगिरि (बारहवीं शती), जिनचन्द्रसूरि (बारहवीं शती), पार्श्वदेवगण (बारहवीं शती), जिनकुशल सूरि (तेरहवी शती) आदि अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने मन्त्र और विद्याओं की साधना के द्वारा जैन धर्म की प्रभावना की। यद्यपि विविध ग्रंथों, प्रबन्धों और पट्टावलियों में वर्णित इनके कथानकों में कितनी सत्यता है, यह एक भिन्न विषय है, किन्तु जैन साहित्य में जो इनके जीवनवृत्त मिलते हैं वे इतना तो अवश्य सूचित करते हैं कि लगभग चौथी - पाँचवी शताब्दी से जैन आचार्यों का रुझान तांत्रिक साधनाओं की ओर बढ़ा था और वे जैन-धर्म की प्रभावना के निमित्त उसका उपयोग भी करते थे ।
मेरी दृष्टि से जैन परम्परा में तांत्रिक साधनाओं का जो उद्भव और विकास हुआ है, वह मुख्यतः दो कारणों से हुआ है - प्रथम तो यह कि जब वैयिक्तक साधना की अपेक्षा संघीय जीवन को प्रधानता दी गई तो संघ की रक्षा और अपने
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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