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________________ की साधनाओं को न केवल वर्जित माना गया था, अपितु इस प्रकार की साधना में लगे हुए लोगों की आसुरी योनियों में उत्पन्न होने वाला भी कहा गया। किन्तु जब पार्श्व की परम्परा का विलय महावीर की परम्परा में हुआ तो पार्श्व की परम्परा के प्रभाव से महावीर की परम्परा के श्रमण भी तांत्रिक परम्पराओं से जुड़े। महावीर के संघ में तान्त्रिक साधनाओं की स्वीकृति इस अर्थ में हुई कि उनके माध्यम से या तो आत्मविशुद्धि की दिशा में आगे बढ़ा जाये अथवा उन्हें सिद्ध करके उनका उपयोग जैन धर्म की प्रभावना या उसके प्रसार के लिए किया जाये। इस प्रकार महावीर के धर्मसंघ में तन्त्र साधना का प्रवेश जिनशासन की प्रभावना के निमित्त हुआ और परवर्ती अनेक जैनाचार्यों ने जैन धर्म के प्रभावना के लिए तांत्रिक-साधनाओं से प्राप्त शक्ति का प्रयोग भी किया, जैन साहित्य में ऐसे संदर्भ विपुलता से उपलब्ध होते हैं। आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में किसी मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व सूरिमंत्र ओर वर्द्धमान विद्या की साधना करनी होती है। मात्र यही नहीं, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमण और श्रमणियाँ मन्त्रसिद्ध सुगन्धित वस्तुओं का एक चूर्ण जिसे वासक्षेप कहा जाता है, अपने पास रखते हैं और उपासकों को आर्शीवाद के रूप में प्रदान करते हैं। यह जैन धर्म में तन्त्र के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है। इसी प्रकार मंत्रसिद्ध रक्षाकवच भी उपासकों को प्रदान किये जाते हैं। न केवल श्वेताम्बर और दिगम्बर भट्टारक परम्परा में अपितु वर्तमान दिगम्बर परम्परा में भी अनेक आचार्य और मुनि विशेषरूप से आचार्य विमलसागर जी की परम्परा के मुनिगण तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। लगभग सातवीं शती के अनेक अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्य भी उपलब्ध होते हैं जिनमें जैन-मुनियों द्वारा तन्त्र-मन्त्र के प्रयोग के प्रसंग उपलब्ध हैं। वस्तुतः चैत्यवास के परिणामस्वारूप दिगम्बर सम्प्रदाय में विकसित भट्टारक परम्परा और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विकसित यति परम्परा स्पष्टतया इन तान्त्रिक साधनाओं से सम्बन्धित रही है, यद्यपि आध्यात्मवादी मुनिवर्ग ने इन्हें सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है और समय-समय पर इन प्रवृत्तियों की आलोचना भी की है। वस्तुतः जैन परम्परा में तान्त्रिक साधनाओं का विकास चौथी-पाँचवी शताब्दी के पूर्व ही प्रारम्भ हो गया था। कल्पसूत्र पट्टावली में जैन श्रमणों की जो प्राचीन आचार्य परम्परा वर्णित है उसमें विद्याधरकुल का उल्लेख मिलता है। सम्भवतः विद्याधार जैन श्रमणों का वह वर्ग रहा होगा जो विविध विद्याओं की साधना करता होगा। यहाँ विद्या का तात्पर्य बुद्धि नहीं, अपितु देव अधिष्ठित अलौकिक शक्ति की प्राप्ति ही है। प्राचीन जैन साहित्य में हमें जंघाचारी और जैन धर्मदर्शन 485
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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