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श्रावक भक्तों के भौतिक कल्याण को भी साधना का आवश्यक अंग मान लिया गया। दूसरे तंत्र के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण जैन आचार्यों के लिए यह अपरिहार्य हो गया था कि वे मूलतः निवृत्तिमार्गी और आत्मविशुद्धिपरक इस धर्म को जीवित बनाए रखने के लिए तांत्रिक उपासना और साधना-पद्धति को किसी सीमा तक स्वीकार करें, अन्यथा उपासकों का इतर परम्पराओं की ओर आकर्षित होने का भय था।
___अध्यात्म के आदर्श की बात करना तो सुखद लगता है, किन्तु उन आदर्शों को जीवन में जीना सहज नहीं है। जैन धर्म का उपासक भी वही व्यक्ति है जिसे अपने लौकिक और भौतिक मंगल की आकांक्षा रहती है। जैन धर्म को विशुद्ध रूप में मात्र आध्यात्मिक और निवृत्तिमार्गी बनाए रखने पर भक्तों या उपासकों के एक बड़े भाग से जैन धर्म के विमुख हो जाने की सम्भावनाएँ थीं। इन परिस्थितियों में जैन आचार्यों की यह विवशता थी कि वे अपने अनुयायियों की श्रद्धा जैन-धर्म में बनी रहे इसके लिए उन्हें यह आवश्वासन दें कि चाहे तीर्थंकर उनके लौकिक-भौतिक कल्याण करने में असमर्थ हों, किन्तु उन तीर्थंकरों के शासन रक्षक देव उनका लौकिक और भौतिक मंगल करने में समर्थ हैं। जैन देवमण्डल में विभिन्न यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, क्षेत्रपालों आदि को जो स्थान मिला, उसका मुख्य लक्ष्य तो अपने अनुयायियों की श्रद्धा जैन-धर्म में बनाए रखना ही था।
यही कारण था कि आठवीं-नौवीं शताब्दी में जैन आचार्यों ने अनेक तांत्रिक विधि-विधानों को जैन-साधना और पूजा-पद्धति का अंग बना दिया। यह सत्य है कि जैन साधना में तांत्रिक साधना की अनेक विद्याएँ यथा मन्त्र, यन्त्र, जप, पूजा, ध्यान आदि क्रमिक रूप से विकसित होती रही है, किन्तु यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव का परिणाम थी, जिसे जैन धर्म के उपासकों की निष्ठा को जैन धर्म के बनाए रखने के लिए स्वीकार किया गया था।
संदर्भ - 1. पञ्चाशक, प्रका.-ऋषभदेव श्री, केशरीमलजी श्वे. संस्था, 2/44 2. ललितविस्तरा, हरिभद्र, प्रका.-ऋषभदेव, केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, वी.नि.स. 2461,
पृ. 57-58 3. गुह्यसमाजतन्त्र, संपा.- विनयतोष भट्टाचार्य, प्रका.- ओरिएण्टल इंस्टिट्यूट, बरोदा,
1931, 5/40 5. सूत्रकृताङ्गसूत्र संपा.-मधुकर मुनि, प्रका.- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982,
2/3/18
जैन धर्मदर्शन
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