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________________ पद्धतियों के प्रभाव को शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के ग्रन्थों पर देखा जा सकता है। हरिभद्र ने अपने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में योग साधना की विभिन्न स्थितियों का वर्णन अलग ही नामों से किया है। यह स्पष्ट है कि वे मूलतः ब्राह्मण परम्परा से सम्बद्ध रहे, इसलिये इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अन्य योग ग्रन्थों से प्रभावित रहे हैं। लेकिन एक बात बहुत ही स्पष्ट है कि वे जैन योग परम्परा के प्रति पूरी तरह ईमानदार रहे हैं। हिन्दू परम्परा के योगवशिष्ठ में योग-साधना की तीन स्थितियाँ हैं1. सम्पूर्ण समर्पण 2. मानसिक शांति और 3. शरीर तथा मन की क्रियाओं को पूर्ण निरोध। हरिभद्र ने भी अपने योगदृष्टिसमुच्चय में जिन तीन योगों का उल्लेख किया है - 1. इच्छायोग 2. शास्त्रयोग और 3. सामर्थ्ययोग- वह जैनों के त्रिरत्न पर आधारित है। इनमें से इच्छायोग -सम्पूर्ण समर्पण के समान है क्योंकि इसके अन्त में अपनी कोई इच्छा बचती ही नहीं है और सामर्थ्य योग योगवाशिष्ठ की अन्य दो स्थितियों मानसिक शांति तथा शरीर, मन की संपूर्ण क्रियाओं के निरोध के समान है। योगबिन्दु में हरिभद्र ने योग के निम्न प्रकार बताए हैं - 1. आध्यात्मयोग (spiritualism)- आध्यात्मिकता 2. भावनायोग (contemplation)-धारणा 3. ध्यानयोग (meditation)- ध्यान 4. समतायोग (equanimity of mind)- मन की समता स्थिति 5. वृत्तिसंक्षययोग (ceasetion of all activties of mind, body and speech)- मन, वाणी और शरीर की सब क्रियाओं का निरोध। ___ योग के इन पाँच भेदों में आध्यात्मयोग को अन्य योगपद्धतियों में "महायोग" के रूप में मान्य किया गया है, भावना और ध्यान की अवधारणाएँ हिन्दू योगपद्धति में भी है। समतायोग और वृत्तिसंक्षय-योग जैसा कि हम देख ही चुके है, ये दोनों योग योगवाशिष्ठ में भी उल्लेखित है और वृत्तिसंक्षय-योग, लय-योग के अन्तर्गत आता है। हरिभद्र ने अपनी योगविंशिका में जो चार प्रकार के योग बताए हैं - 1. आसन (शरीर की स्थिति विशेष body-posture) 2. ऊर्ण (मंत्रोच्चारण - recitation of mantras) 3. आलंबन और 4. अनालंबन आसन की अवधारणा पतंजलि के योग सूत्र में भी विद्यमान है। इसी तरह ऊर्ण को हिन्दू योगपद्धति में मंत्रयोग या जपयोग के रूप में माना गया है और इसी तरह आलंबन को भक्तियोग तथा अनालंबन को लययोग के रूप में बताया गया है। इसी प्रकार हरिभद्र द्वारा आठ योगदृष्टियों की व्यवस्था भी पतंजलि के अष्टांग योग के आधार पर की गई है। 468 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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