SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यद्यपि हरिभद्र ने इन विभिन्न अवधारणाओं को बौद्ध तथा हिन्दू तन्त्र पद्धतियों से लिया है, किन्तु उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने इनको जैन परम्परानुसार व्यवस्थित किया है और नाम दिये हैं। लेकिन जहाँ तक पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान और उनकी पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी और वारूणी धारणाओं का संबंध है, वे शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र के योगशास्त्र में हिन्दू तन्त्रवाद के प्रभाव से ही आई हैं। यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है कि उक्त दोनों ग्रन्थों में पतंजलि के अष्टांगयोग का विस्तार से वर्णन है। इसलिये हमें यह मानना ही चाहिये कि उक्त दोनों आचार्य पतंजलि के योगसूत्र और अन्य हिन्दू तान्त्रिक साहित्य- जैसे कि घेरण्डसंहित, कुलार्णव आदि से बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। मंत्र और तन्त्र के प्रभाव का काल (13वीं सदी से 19वीं सदी तक) हेमचन्द्र के बाद और यशोविजय के पहले अर्थात् 13वीं सदी से 16वीं सदी तक की चार शताब्दियों को जैनयोग का अंधयुग (dark age of jainyoga) माना जा सकता है। इस काल में जैनयोग जो कि मूलतः आध्यात्मिक प्रकार का था, पूरी तरह से नैपथ्य में चला गया (gone into background) और कर्मकाण्ड प्रधान तन्त्र-मंत्र ही प्रमुख हो गये। इस काल में योगसाधना का उद्देश्य मुक्ति या आत्मविशुद्धि के बजाय सांसरिक उपलब्धियाँ हो गया था। इस प्रकार योगसाधना का आध्यात्मिक उद्देश्य पूर्णतः भूला दिया गया और उसका स्थान भौतिक कल्याण और वासना पूर्ति ने ले लिया। यद्यपि इन शाताब्दियों में जैन साहित्य में अन्य दर्शनों की आलोचना हेतु भी ग्रन्थ लिखे गये, लेकिन योग की दृष्टि से इस काल का प्रमुख लक्षण तन्त्र, मन्त्र और कर्मकांड, पूजा-पाठ (Rituals) ही था। इसलिये इन शताब्दियों में जैन आचार्यों ने स्तुति-स्त्रोत, पूजा-पाठ तथा तंत्र-मंत्र साधना संबंधी साहित्य की रचना की। इस काल के आरम्भ में शासन-देवताओं (यक्ष-यक्षी), भैरव और योगीनियों की पूजा अधिक महत्वपूर्ण हो गई थी, जिसका उद्देश्य भक्त की भौतिक कल्याण की कामना ही था और इसी कारण अनेक हिन्दू देवी-देवताओं को शासन रक्षक देवों के रूप में जैनियों ने पूरी तरह मान लिया। __इस काल के अन्त में जैनयोग के आध्यात्मिक स्वरूप का पुनरावर्तन यशोविजय (17वीं शताब्दी) द्वारा हुआ। उन्होंने हरिभद्र के ग्रन्थों की टीकाएं लिखी और उसके साथ-साथ ही आध्यात्मसार, ज्ञानसार, आध्यात्मोनिषद् सरीखे मौलिक योग साहित्य की रचना की और इन पर भी टीकाएँ भी लिखी। यही नहीं यशोविजय ने पतंजलि के योगसूत्र पर भी एक टीका भी लिखी है। इसी प्रकार इस काल के जैन धर्मदर्शन 469
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy