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________________ कामा दुरतिक्कमा, जीवियं दुप्पडिवूहगं,0. काम कामी खलु अयं पुरिसे से सोयइ जूरइ तिप्पई, पिरतिप्पई।। काम (कामनाओं) का पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता। कामेच्छुक मनुष्य शोक किया करता है। संताप और परिताप उठाया करता है। जब तक मानव जीवन में आसक्ति (कामना) रहेगी, तब तक मानवीय दुःख लगे ही रहेंगे। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है - चित्तमन्तमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि, अन्नं वा अणुजाणाई एवं दुक्खाण मुच्चई ।।। जब तक मनुष्य सजीव (स्त्री) और निर्जीव (धन-सम्पत्ति आदि) पदार्थों में आसक्ति रखता है, तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। शास्त्र ही नहीं वरन् हमारे अर्थशास्त्री भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि हमारी इच्छाएँ अनन्त होती हैं, उनकी सन्तुष्टि भी स्थाई नहीं होती। इच्छाएँ अपनी सन्तुष्टि के साथ ही नवीन इच्छाओं को जन्म देती हैं, जैसे बंगला बनने पर फर्नीचर की इच्छा। इस प्रकार इच्छाओं या तृष्णा का यह चक्र समाप्त नहीं होता। प्रत्येक इच्छा अपने साथ तनाव लेकर उपस्थित होती है और जब तक वह पूरी नहीं हो जाती हमारे अन्दर तनाव बना रहता है। संक्षेप में उनके कारण हम वास्तविक या स्थायी सुखलाभ नहीं कर सकते। जीवन में संयम द्वारा संतोष की प्राप्ति से ही वास्तविक सुख (Happiness) का आस्वादन हो सकता है। पतंजलि कहते हैं: संतोषादनुत्तमसुखलाभः- संतोष से ही सर्वोत्तम सुखों की प्राप्ति होती है। वर्तमान युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं या इच्छाओं को असीमित रूप में बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति हेतु मारा-मारा फिरता है और सुख प्राप्ति की आशा करता है। यह तो मरुभूमि में प्यास बुझाने के समान है क्योंकि बढ़ती हुई सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी भी संभव नहीं। आचार्य गुणभद्र कहते हैं आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । तत्किय कियदायाति वृथावै विषयैषिता।। प्रत्येक प्राणी की आशा रूपी खाई इतनी विशाल है कि उसके सामने संपूर्ण विश्व भी अणु के तुल्य है। इस सम्पूर्ण विश्व की प्राप्ति पर भी किसी की इच्छा का कितना सूक्ष्म भाग पूरा हो सकेगा! अतः विषयों की चाह व्यर्थ है। इच्छओं की वृद्धि में सुख नहीं वरन् उनके संयम और संतोष में ही सुख है। महाभारत में कहा गया है - स्व सतुष्टः स्वधर्मस्थो यः सर्वे सुखमेधते ।। जो आत्मसंतोषी और अपने धर्म में स्थित है वही सुख प्राप्त करता है। 452 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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