________________
आज हमारी सभ्यता आध्यात्मिक से भौतिक हो गई है। धर्म और मोक्ष की उपासना को छोड़कर आज का मनुष्य काम और अर्थ की उपासना में लगा है। काम को अर्थ के अधीन कर आज हमने अर्थ-मूलक सभ्यता का निर्माण कर लिया है। और इसीलिए आज का मनुष्य पैसे में सुख की खोज करता है। हमारा सभी वस्तुओं को मापने का पैमाना पैसा हो गया है, लेकिन इन समस्त प्रयासों में मनुष्य के हाथ दुःख, वैमनस्य और अशांति ही लगी है। पिछले दो महायुद्ध उपर्युक्त तथ्य के ज्वलंत प्रमाण हैं।
. वास्तव में सुख के मापदंड का यह आधार ही गलत है। कहा भी गया है कि जो निर्धन होते हुए भी संतोषी है, वह साम्राज्य का सुख प्राप्त करता हैअकिंचनोपि सन्तुष्टः साम्राज्यसुखमश्नुते। हिन्दी के किसी कवि ने कहा है -
गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।। तात्पर्य यह है कि संयम से प्राप्त संतोष के द्वारा ही सच्चे सुख को प्राप्त किया जा सकता है
प्रगति का सच्चा स्वरूप न समझकर आज का मनुष्य जिस अर्थ के पीछे भागा जा रहा है, उसका अंतिम पड़ाव कहाँ है और उसकी प्राप्ति से उसे क्या फल प्राप्त होने वाला है? इस बात का ध्यान उसे नहीं है। हम बेतहाशा भागे जा रहे हैं, लेकिन न तो पथ का भान है और न लक्ष्य का ही, हमारी भागदौड़ वस्तुतः लक्ष्यविहीन है।
जीवन में जिस सुख और शांति की प्राप्ति की अपेक्षा हमें है वह न तो इस लक्ष्यविहीन भौतिक दौड़ से प्राप्त हो सकती है, और न आवश्यकताओं को निर्बाध गति से बढ़ाने में। वास्तव में इन सबके द्वारा हम अपने अंदर तनाव उत्पन्न कर रहे हैं। हम जिस सुख और शांति को प्राप्त करना चाहते हैं वह बाह्य पदार्थों में नहीं, हमारे अंदर ही है। सुख एक आत्मिक तथ्य है। वह मुख्य रूप से आत्मगत (Subjective) है, लेकिन हम उसे वस्तुगत (Objective) मानकर प्राप्त करना चाहते हैं। हमारी यही सबसे बड़ी भूल है।
संदर्भ1. पश्चिमी दर्शन, पृ. 121 । 2. राधाकृष्णन, हिन्दुओं का जीवन दर्शन, पृ. 68। 3. सुभाषित संग्रह, पृ. 91 ।
जैन धर्मदर्शन
453