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________________ प्रयत्न अपेक्षित है । यदि हमें जीवन में सामञ्जस्य स्थापित करना है तो जो भोग का या प्रवृत्ति का मार्ग है, उससे निवृत्ति करनी होगी और जो निवृत्ति का, त्याग का मार्ग है उसमें प्रवृत्ति करनी होगी । जैनशास्त्रों में इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त किया गया है - असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं 17 अर्थात् असंयम में निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए । सच्चा संतुलन भी इसी प्रकार स्थापित किया जा सकता है । निःसंदेह भौतिक आवश्यकताओं का मूल्य है, लेकिन उनका मूल्य अध्यात्म से अधिक आँकना गलत है । वास्तव में भौतिक आवश्यकताओं को अध्यात्म की साधना में सहायक के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए | कबीरदासजी भी कहते हैं - कबीरा छुधा कूकरी करत भजन में भंग । या को टुकड़ों डारि के, भजन करो निसंग ।। यही नहीं, वरन् भौतिक इच्छाओं की पूर्ति सीमित रूप में ही की जानी चाहिए। वे कहते हैं - सांई इतना दीजिये, जामे कुटुम समाय । आप भी भूखा न रहे, साधु न भूखा जाए ।। लेकिन यदि हम भौतिक आवश्यकताओं की ओर निर्बाध गति से बढ़ें तो हमें दुःख ही हाथ लगेगा । महात्मा बुद्ध ने भी आवश्यकताओं की अपरिमित वृद्धि (तृष्णा) के फल को दुःखद बतलाते हुए कहा है यमेषा सहते जाल्मा, तृष्णा लोके विषात्मिका । शोकास्तस्य प्रवर्धन्ते, अभिरूढमिव वीरणम् ।।' यह विषैली नीच तृष्णा जिसे घेर लेती है उसके दुःख उसी प्रकार बढ़ते हैं जैसे वीरण घास बढ़ती जाती है । दूसरे संस्कृत कवि ने कहा है :तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा, भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः । । अर्थात् तृष्णा का अंत नहीं आता है, तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती है । हम ही वृद्ध हो जाते हैं। भोग के भोगने की कामना समाप्त नहीं होती वरन् आयु ही समाप्त हो जाती है। जैन ग्रंथकारों ने भी तृष्णा को अनंत माना है-इच्छा हु आगाससमा अणंतिया’-अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनन्त है। यही नहीं वरन् आचारांग सूत्र में कहा गया है . जैन धर्मदर्शन 451
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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