________________
जैन, बौद्ध और गीता दर्शन में मोक्ष का स्वरूप
जैन तत्त्वमीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्ध अवस्था होती है उसे मोक्ष कहा जाता है।' कर्म-फल के अभाव में कर्म जनित आवरण या बंधन भी नहीं रहते और यही बंधन का अभाव ही मुक्ति है । वस्तुतः मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । ' बंधन आत्मा की विरूपावस्था है और मुक्ति आत्मा की स्वरूपावस्था है । अनात्म में ममत्व, आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मोक्ष है" और यही आत्मा की शुद्धावस्था है । बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है। आत्मा विरूप पर्याय बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है । पर पदार्थ, पुद्गल, परमाणु या जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर में आत्म-भाव (मेरापन ) उत्पन्न होता है, यही विरूप पर्याय है, परपरिणति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । 1 बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म-द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएँ मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण मुकुट और स्वर्ण कुंडल की ही दो अवस्थाएँ हैं । लेकिन यदि मात्र, विशुद्ध तत्व दृष्टि या निश्चय नय से विचार किया जाये तो बंधन और मुक्ति दोनों की व्याख्या संभव नहीं है क्योंकि आत्मतत्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणत नहीं होता । विशुद्ध तत्व दृष्टि से तो आत्मा नित्यमुक्त है लेकिन जब तत्व का पर्यायों के संबंध में विचार प्रारम्भ किया जाता है तो बंधन और मुक्ति की संभावनाएँ स्पष्ट हो जाती है क्योंकि बन्धन और मुक्ति पर्याय अवस्था में ही संभव होती है । मोक्ष को तत्व माना गया है, लेकिन वस्तुतः मोक्ष बंधन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है1. भावात्मक दृष्टिकोण, 2. अभावात्मक दृष्टिकोण, 3. अनिर्वचनीय दृष्टिकोण | मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार – जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावनात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निर्बाध अवस्था कहा है । मोक्ष समस्त. बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निजगुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जातें हैं। मोक्ष, बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता का प्रकटन है । आचार्य
-
में
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
418
&