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नष्ट हो जाये तो फिर वह कर्म अकर्म ही हुआ-कर्म मे बन्धकत्व से यह निश्चय किया जाता है कि वह कर्म है या अकर्म।” जैन और बौद्ध आचार दर्शन में अर्हत् के क्रिया व्यापार को तथा गीता में स्थित प्रज्ञ के क्रिया व्यापार को बन्धन और विपाक रहित माना गया है, क्योंकि अर्हत् या स्थितप्रज्ञ में राग-द्वेष और मोह रूपी वासनाओं का पूर्णतया अभाव होता है। अतः उसका क्रिया व्यापार बन्धन कारक नहीं होता है और इसलिए वह अकर्म कहा जाता है। इस प्रकार तीनों ही आधार दर्शन इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि वासना एवं कषाय से रहित निष्काम कर्म अकर्म है और वासना सहित सकाम कर्म ही कर्म है बन्धन कारक है।
उपरोक्त आधारों पर से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कर्म अकर्म विवक्षा में कर्म का चैतसिक पक्ष ही महत्वपूर्ण कार्य करता है। कौनसा कर्म बन्धन कारक है और कौनसा कर्म बन्धन कारक नहीं है। इसका निर्णय क्रिया के बाह्य स्वरूप से नहीं वरन् क्रिया के मूल में निहित चेतना की रागात्मकता के आधार पर होगा।
जैन धर्मदर्शन
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