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________________ कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टययुक्त, अक्षय, अविनाशी, निधि, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है। आचार्य उसी ग्रंथ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं।' 1. पूर्णज्ञान, 2. पूर्णदर्शन, 3. पूर्णसौख्य, 4. पूर्णवीर्य, 5. अमूर्तत्व, 6. अस्तित्व और, 7. सप्रदेशता। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष दशा के जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है, वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं हैं। वेदान्त को स्वीकार नहीं है, सांख्य सौख्य एवं वीर्य को और न्याय वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं। बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व का भी विनाश कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्ष को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के निराकरण के लिये ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति पर बल देती है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। बीजरूप में यह अनन्त चतुष्टय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है, मोक्ष दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से ये गुण पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते हैं। ये प्रत्येक आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं। अनन्त चतुष्टय में अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य आते हैं, लेकिन अष्टकर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जैन विचारणा में प्रचलित है। 1. ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है। 2. दर्शनावरण कर्म नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से संपन्न होता है। 3. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध अनश्वर आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है। 4. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक सम्यक्त्व) से युक्त होता है। मोह कर्म के दर्शन मोह और चारित्र मोह ऐसे दो भाग किए जाते हैं। दर्शन मोह के प्रहाण से यथार्थ और चारित्र मोह के क्षय से यथार्थ चारित्र (क्षायिक चारित्र) प्रकटन होता है, लेकिन मोक्ष दशा में क्रियारूप चारित्र नहीं होता मात्र दृष्टि रूप चारित्र ही होता है। अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अंतर्गत ही माना जा सकता है। वैसे आठ कर्मों की 31 प्रकृतियों के प्रहाण के आधार से सिद्धों के 31 गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात चारित्र को स्वतंत्र गुण माना गया है। 5. आयु कर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है वह अजर अमर होता है। 6. नामकर्म का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी एवं अमूर्त होता है. अतः वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता है। 7. गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से अगुरुलघुत्व से युक्त जैन धर्मदर्शन 419
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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