SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (2) विकर्म - समस्त अशुभ कर्म जो वासनाओं की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, विकर्म हैं। साथ ही फल की इच्छा एवं अशुभ भावना से जो दान, तप, सेवा आदि शुभ कर्म किये जाते हैं वे भी विकर्म कहलाते हैं। गीता में कहा गया है जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से, मन, वाणी, शरीर की पीड़ा सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने की नीयत से किया जाता है वह तामस कहलाता है। साध पारणतया मन, वाणी एवं शरीर से होने वाले हिंसा, असत्य, चोरी आदि निषिद्ध कर्म विकर्म समझे जाते हैं, परन्तु वे बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म कर्ता की भावनानुसार कर्म या अकर्म के रूप में बदल जाते हैं आसक्ति और अहंकार के रहित होकर शुद्ध भाव दशा में एवं मात्र कर्तव्य सम्पादन में होने वाली हिंसादि (जो देखने में विकर्म से प्रतीत होती है, भी फलोत्पादक न होने से अकर्म ही है)। (3) अकर्म - फलासक्ति से रहित होकर अपना कर्त्तव्य समझ कर जो भी कर्म किया जाता है उस कर्म का नाम अकर्म है। गीता के अनुसार परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित होकर कर्त्तापन के अभिमान से रहित पुरुष द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह मुक्ति के अतिरिक्त अन्य फल नहीं देने वाला होने से अकर्म ही है। अकर्म की अर्थ विवक्षा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार : जैसा कि हमने देखा जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शन क्रिया व्यापार को बंधकत्व की दृष्टि से दो भागें में बांट देते हैं। 1 - बधंक कर्म, और 2 - अबंधक कर्म। अंबधक क्रिया व्यापार का जैन दर्शन में अकर्म का ईर्यापथिक कर्म। बौद्ध दर्शन में अकृष्ण-अशुक्ल कर्म या अव्यक्त कर्म, तथा गीता में अकर्म कहा गया है। प्रथमतः सभी समालोच्य आचार दर्शनों की दृष्टि में अकर्म क्रिया का अभाव नहीं है। जैन विचारणा के शब्दों में कर्म प्रकृति के उदय को समझ कर बिना राग द्वेष के, जो कर्म होता है, वह अकर्म ही है मन, वाणी, शरीर की क्रिया के अभाव का नाम ही अकर्म नहीं। गीता के अनुसार व्यक्ति की मनोदशा के आधार पर क्रिया न करने वाले व्यक्तियों का क्रिया त्याग रूप कर्म अकर्म भी कम बन सकता है और क्रियाशील व्यक्तियों का कर्म भी अकर्म बन सकता है। गीता कहती है कर्मन्द्रियों की सब क्रियाओं को त्याग क्रिया रहित पुरुष जो अपने को सम्पूर्ण क्रियाओं का त्यागी समझता है, उसके द्वारा प्रकट रूप से कोई काम होता हुआ, न दीखने पर -भी-त्याग का अभिमान या आग्रह रखने के कारण रूप कर्म होता है। उसका वह त्याग का अभिमान या आग्रह, अकर्म को भी कर्म बना देता है। इसी प्रकार कर्तव्य प्राप्त होने पर भय या स्वार्थवश कर्त्तव्य कर्म से मुँह मोड़ना, विहित कर्मों का त्याग 414 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy