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2. वे कर्म जो कृत है और उपचित भी हैं - वे समस्त ऐच्छिक कर्म, जिनको
सकल्पपूर्वक सम्पादित किया गया है, इस कोटि में आते हैं। यहां हमें यह
स्मरण रखना चाहिए कि अकृत उपचित कर्म और कृत उपचित कर्म दोनों शुभ ___ और अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित नहीं हैं - अभिधर्म कोष के अनुसार निम्न
कर्म कृत होने पर उपचित नहीं होते हैं अर्थात् अपना फल नहीं देते हैं - (अ) वे कर्म जिन्हें संकल्पपूर्वक नहीं किया गया है अर्थात् जो सचिन्त्य नहीं हैं,
उपचित होते हैं। (ब) वे कर्म जो सचिन्त्य होते हुए भी सहसाकृत हैं, उपचित नहीं होते हैं। इन्हें
हम आकस्मिक कर्म कह सकते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें विचार
प्रेरित कर्म (आइडियो मोटर एक्टीविटी) कहा जा सकता है। (स) भ्रान्तिवश किया गया कर्म भी उपचित नहीं होता। (द) कृत कर्म के करने के पश्चात् यदि अनुताप या ग्लानि हो तो उसका प्रकटन
करके पाप विरति का व्रत लेने से कृत कर्म उपचित नहीं होता। (इ) शुभ का अभ्यास करने से तथा आश्रय बल से (बुद्ध के शरणागत हो जाने
से) भी पाव कर्म उपचित नहीं होता। 4. वे कर्म जो कृत भी नहीं है और उपचित भी नहीं हैं : स्वप्नावस्था में गये किए कर्म इसी प्रकार के होते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं प्रथम दो वर्गों के कर्म प्राणी को बन्धन में डालते हैं, लेकिन अन्तिम दो प्रकार के कर्म प्राणी को बन्धन में नहीं डालते हैं।
बौद्ध आचार दर्शन में भी राग-द्वेष और मोह से युक्त होने पर कर्म को बंधन कारक नहीं माना जाता है। जबकि राग-द्वेष और मोह से रहित कर्म को बन्धक कारक नहीं माना जाता है। बौद्ध दर्शन भी राग-द्वेष और मोह रहित अर्हत् के क्रिया व्यापार को बन्धन कारक नहीं मानता है, ऐसे कर्मों को अकृष्ण अशुक्ल या अव्यक्त कर्म भी कहा गया है। गीता में कर्म-अकर्म का स्वरूप - गीता भी इस संबंध में गहराई से विचार करती है कि कौन सा कर्म बन्धन कारक और कौन सा कर्म बन्धन कारक नहीं है? गीताकार कर्म को तीन भागों में वर्गीकृत कर देते हैं। 1- कर्म, 2- विकर्म, 3- अकर्म। गीता के अनुसार कर्म और विकर्म बन्धन कारक हैं जबकि अकर्म बन्धन कारक नहीं हैं। (1) कर्म - फल की इच्छा से जो शुभ कर्म किये जाते हैं, उसका नाम कर्म हैं।
जैन धर्मदर्शन
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